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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार] [४६१ शरण है, साधर्मियों की बड़ी सहायता है, अतः सहज ही ऋण का भार उतार कर निराकुल सुख को प्राप्त करूँगा। अपने कषायादि भावों से उत्पन्न किया कर्म ऐसा बलवान है कि वह ऋद्धि के, विद्या के बन्धुजनों के, धनसम्पदा के, शरीर के, मित्रों के, देव-दानवों की सहायता के बल को आधे क्षण में ही नष्ट कर देता है। कर्मरुप ऋण बिना चुकाये छूटता नही हैं। रोग, शोक, जीवन, मरण अन्य किसी के भी उदय में नहीं आये हों, केवल तुम्हारे ही उदय में आये हैं तब तो दुःख करना उचित है; क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग, जन्म, जरा, मरण उदय के अवसर में किसे दुःख नहीं देते हैं ? समस्त संसारी जीवों के कर्म का उदय आता है, सभी मरण को प्राप्त होते हैं। चारों गतियों में कर्म का उदय आता है। अतः पूर्व अवस्था में जो कर्म का बन्ध किया था उसका उदय आने पर, आकुलता छोड़कर, परम धैर्य धारण कर, समभावों से कर्म पर विजय प्राप्त करो। समस्त दुःखो को जीतने के अवसर पर अब किसका विषाद करते हो ? सम्यग्दृष्टि तो जन्म से ही समाधिमरण की इच्छा करता है। यह अवसर बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है। समस्त दुःखों के नाश का अवसर कठिनाई से प्राप्त हुआ है। इस उत्साह के अवसर पर विषाद करना उचित नहीं है। यदि यह अवसर चूक गये तो फिर अनन्तकाल में ऐसा अवसर नहीं मिलेगा। संयम भंग करना महा अपराध है; अरहन्त, सिद्ध , आचार्य आदि भगवान परमेष्ठी व समस्त साधर्मियों की साक्षी में जो त्याग, व्रत, संयम ग्रहण किया था, उस त्याग को भंग कर देने में पंच परमेष्ठी की विरुद्धता (अनादर) हुई; समस्त धर्म का लोप हुआ , धर्म को दूषण लगाया, धर्म के मार्ग की विराधना की, अपने दोनों लोक नष्ट किये। मरण तो अवश्य ही होगा। मरण और दु:ख तो व्रत-संयम को भंग कर देने पर भी दूर नहीं हो सकते हैं। जो कार्य राजा और पंचों को साक्षी बनाकर किये जाते हैं, यदि उन कार्यों को फिर बिगाड़ दे तो वह महापराध के तीव्र दण्ड को प्राप्त करने योग्य है,समस्त लोक में धिक्कार व तिरस्कार को प्राप्त होता है; परलोक में अनन्तकाल तक अनन्त जन्म, मरण, रोग, वियोग होने का पात्र होता है। जो त्याग आदि नहीं करता है वह तो अनादि का संसारी है ही; उसने तो त्याग, संयम, व्रत पाये ही नहीं हैं किन्तु जो त्याग, व्रत संयम, समाधिमरण, सन्यास लेकर फिर बिगाड़ देता है। उसे धर्म की गंध प्राप्त होना अनन्तानन्त काल में दुर्लभ है। व्रत भंग करना महा अपराध है। आहार की गृद्धताः आहार की गृद्धता अत्यन्त निंदनीय है। जो उत्तम पुरुष हैं वे तो क्षुधा वेदना को प्राणों का अपहरण करनेवाली जानकर उसके इलाज मात्र के लिए आहार करते हैं। उसकी भी उन्हें बड़ी लज्जा है। आहार की कथा को भी दुर्ध्यान को करनेवाली जानकर त्यागते हैं। यह हाड़-मांसमय देह आहार के बिना नहीं रह सकती है तथा देह के बिना तप, व्रत, संयमरुप, रत्नत्रयधर्म नहीं पल सकता है; इसलिये रत्नत्रय धर्म को पालने के लिये रसनीरस जैसे भोजन की Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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