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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार] [४४५ गये हो; यहाँ पर तुम्हारे लिये कितना सा दुःख है ? तिर्यंचगति के घोर दुःख भगवान केवलज्ञानी भी वचनद्वार से कहने में समर्थ नहीं हैं। मैं तिर्यंचपर्याय में पूर्वकाल में अनन्तबार अग्नि में जल-जल कर मरा हँ: अनन्तबार पानी में डूबकर मरा हँ; अनन्तबार विष-भक्षण कर मरा हूँ; अनन्तबार सिंह, व्याघ्र ,सर्पादि द्वारा विदारा गया हूँ; शस्त्रों से छेदा गया हूँ। अनन्तबार शीत-वेदना से ,उष्णता की वेदना से, तृषा की वेदना से मरा हूँ, अभी यह रोगजनित वेदना कितनी सी है ? रोग तो मेरा उपकार ही कर रहा है। यदि रोग उत्पन्न नहीं होता तो मेरा देह से स्नेह नहीं घटता; सभी से छूटकर परमात्मा की शरण ग्रहण नहीं करता । इसलिये इस समय में जो रोग हुआ है वह भी मेरा आराधना मरण में प्रेरणा करनेवाला मित्र ही है। इस प्रकार विचार करनेवाला ज्ञानी रोग के आने पर भी क्लेश नहीं करता है, वह तो मोह का नाश कर देने का उत्सव ही मनाता है। समाधिमरण तो अमृत देनेवाला है: ज्ञानिनोऽमृतससङ्गाय मृत्यस्तापकरोऽपि सन् । आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत् पाकविधिर्यथा ।।१३।। अर्थ :- इस लोक में मृत्यु तो समस्त जगत के जीवों को आताप करने वाली है, किन्तु सम्यग्ज्ञानी जीवों के लिये तो वह अमृत का साथ अर्थात् मोक्ष प्राप्त करानेवाली है । जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े को अमृतरुप जल भरने के लिये अग्नि में पकाया जाता है, यदि कच्चे घड़े को अग्नि में विधिपूर्वक नहीं पकाया जाये तो घड़े में जल नहीं रखा जा सकता है; अग्नि में एकबार पक जाने पर उस घड़े में बहुत समय तक जल भरकर रखा जा सकता है; उसी प्रकार मृत्यु के समय यदि एकबार समभावों से आताप सहन कर लिया जाये तो यह जीव निर्वाण का पात्र हो जाये। भावार्थ :- अज्ञानी के तो मृत्यु के नाम से ही परिणामों में कष्ट होने लगता है कि अब मैं चला, अब कैसे जीऊँ, क्या करूँ, कौन रक्षा करे ? इस प्रकार दुःखी होने लगता है क्योंकि वह तो बहिरात्मा है, देहादि बाह्य वस्तु को ही आत्मा मानता है। जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि है वह ऐसा मानता है: आयुकर्म आदि के निमित्त से ही देह का धारण है, यह अपनी स्थिति पूर्ण होने पर अवश्य ही विनशेगा। मैं आत्मा अविनाशी ज्ञान स्वरुप हूँ, जीर्ण देह को छोड़कर नवीन शरीर में प्रवेश करने में मेरी कुछ भी हानि नहीं है। समाधिमरण महान तप- मुक्ति का सरल उपाय: यत्फलं प्राप्यते सदाभि बतायाः सविडम्बनात । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मुत्युकाले समाधिना ।।१४।। अर्थ :- सत्पुरुष जिस फल को बड़े खेदपूर्वक व्रतों को पालन करने से प्राप्त कर पाते हैं वह फल मृत्यु के अवसर में थोड़े समय को शुभध्यानरुप समाधिमरण का सुखपूर्वक साधन करने से प्राप्त हो जाता है । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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