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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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श्रीमद् उवाच: १. स्व द्रव्य अन्य द्रव्य को भिन्न-भिन्न देखो। २. स्व द्रव्य के रक्षक शीघ्रता से बनो । ३. स्व द्रव्य के व्यापक शीघ्रता से बनो । ४. स्व द्रव्य के धारक शीघ्रता से बनो। ५. स्व द्रव्य के रमक शीघ्रता से बनो। ६. स्व द्रव्य के ग्राहक शीघ्रता से बनो।
पर द्रव्य की रक्षकता शीघ्रता से छोड़ो। ८. पर द्रव्य की धारकता शीघ्रता से छोड़ो। ९. पर द्रव्य की रमणता शीघ्रता से छोड़ो । १०. पर द्रव्य की ग्राहकता शीघ्रता से छोड़ो ।
शास्त्राभ्यास, व्रत और धन की यथार्थता हे स्थूलबुद्धि ! तूने व्रतादिक शुभ कार्य कहे वह करने योग्य ही हैं; किन्तु वे सर्व सम्यक्त्व बिना ऐसे हैं जैसे अंक बिना बिन्दी। और जीवादिक का स्वरुप जाने बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा, जैसे बांझ का पुत्र।
- सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका पीठिका पृ.६ अर्थ का (धन का) पक्षपाती कहता है कि - इस शास्त्र के अभ्यास करने से क्या है ? सर्व कार्य धन से बनते हैं। धन से ही प्रभावना आदि धर्म होता हैं, धनवान के निकट अनेक पंडित आकर रहते हैं। अन्य भी सर्व कार्यों की सिद्धि होती है, अतः धन पैदा करने का उद्यम करना।
उसको कहते हैं : रे पापी! धन कुछ अपना उत्पन्न किया तो नहीं होता, भाग्य से होता है। ग्रन्थाभ्यास आदि धर्मसाधन से जो पुण्य की उत्पत्ति होती है उसी का नाम भाग्य है। यदि धन होना है तो शास्त्राभ्यास करने से कैसे नहीं होगा ? अगर नहीं होना है तो शास्त्राभ्यास नहीं करने से कैसे होगा? इसलिये धन का होना न होना तो उदयाधीन है, शास्त्राभ्यास में क्यों शिथिल होता है ?
सुन! धन है वह विनाशीक है, भयसंयुक्त है, पाप से उत्पन्न होता है, नरकादिक का कारण है। और जो यह शास्त्राभ्यासरुप ज्ञानधन है वह अविनाशी है, भयरहित है, धर्मरुप है, स्वर्ग-मोक्ष का कारण है। अत: महंत पुरुष तो धनादिक को छोड़कर शास्त्राभ्यास में ही लगते हैं, और तू पापी! शास्त्राभ्यास को छुड़ाकर धन पैदा करने की बड़ाई करता है, तो तू अनन्तसंसारी है। - वहीं पृ. १२
तूने कहा कि - धनवान के निकट पंडित भी आकर के रहते हैं। सो लोभी पंडित हो और अविवेकी धनवान वहाँ ऐसा होता है। और शास्त्राभ्यासवालों की तो इन्द्रादिक भी सेवा करते हैं, यहां भी बड़े-बड़े महंत पूरुष दास होते देखे जाते हैं, इसलिये शास्त्राभ्यास वालों से धनवानों को महन्त न जान।
तूने कहा कि - धन से सर्व कार्य की सिद्धि होती है; किन्तु ऐसा नहीं है। उस धन से तो इस लोक संबंधी कुछ विषयादिक कार्य इस प्रकार के सिद्ध होते हैं जिससे बहुत काल तक नरकादिक दुःख सहने पड़ते हैं। और शास्त्राभ्यास ऐसे कार्य सिद्ध होते हैं कि जिससे इस लोक परलोक में अनेक सुखो की परंपरा प्राप्त होती है। इसलिये धन पैदा करने के विकल्प को छोड़कर शास्त्राभ्यास करना।
- वहीं पृ. १३
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