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________________ ४२६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जब आयु अन्तर्मुहूर्त बाकी रह जाती है तब केवली भगवान वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म की स्थिति को भी, यदि आयु कर्म की स्थिति के बराबर ही है तब तो समस्त मनोयोग - वचनयोग को छोड़कर बादर काययोग को भी छोड़कर, सूक्ष्म काययोग का अवलंबन करके सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान को प्राप्त करने योग्य हो जाते । किन्तु यदि आयु अंतर्मुहूर्त शेष रह गयी हो तथा वेदनीय, नाम, गोत्र, कर्म की स्थिति अधिक हो तो सयोगी केवली समस्त कर्मों की रज को नाश करने की शक्ति वाले स्वभाव के होने से दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण समुद्रघात द्वारा अपने आत्म प्रदेशों को चार समयों में प्रसार करके तथा चार समयों में आत्म प्रदेशो को प्रसार से संकोच करके समस्त कर्मों की स्थिति को समान करके पूर्व शरीर प्रमाण होकर सूक्ष्म काययोग करके सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यान को प्राप्त हो जाते हैं। समुच्छिन्न ( व्युपरत ) क्रिया निवृत्ति शुक्ल ध्यान ( ४ ) : उसके पश्चात् समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान प्रारंभ करते हैं । समुच्छिन्न अर्थात् नष्ट हो गया है श्वासोच्छवास का आनाजाना तथा समस्त काय - वचन -मन का योगरुप समस्त प्रदेशों का हलन चलनरुप क्रिया का व्यापार जिसमें, इसलिये उसे समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान कहते हैं । उस समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान के होने पर समस्त बंध का कारण समस्त आस्त्रव का निरोध हो जाता है; तथा समस्त कर्मों के नाश करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाने से अयोग केवली भगवान के सम्पूर्ण संसार के दुःखों का साथ नष्ट करने का साधन सम्पूर्ण यथाख्यात चारित्र, ज्ञान, दर्शन, साक्षात् मोक्ष का कारण उत्पन्न हो जाता है। जिन्होंने ध्यानरुप अग्नि से कर्म मल कलंक बंध को जला दिया है तथा जिस स्वर्ण से कीट धातु पाषाण दूर हो गया है, उस स्वर्ण के समान वे अयोग केवली भगवान अपनी आत्मा की शुद्धता प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार संक्षेप में शुक्लध्यान का वर्णन करके ध्यान नाम के तप का वर्णन समाप्त किया। इस प्रकार यह तप भावना का वर्णन हुआ। अब यहाँ पर अनेकान्त भावना तथा समयसारादि भावना का वर्णन करना चाहते हैं, परन्तु आयु-काय का अब यहाँ पर शिथिलपना होने से कोई ठिकाना नहीं है। अतः मूललेखक के कहे कथन को समेट लेना उचित समझकर मूल ग्रन्थ का कथन लिखते हैं। यहां तक श्रावक बारह व्रतों का वर्णन तो कर चुके । अन्तिम समय में सल्लेखना के बिना व्रत सफल नहीं होते। बारह व्रतरुप स्वर्ण का मंदिर तो खड़ा किया, अब उसके ऊपर सल्लेखना रुप रत्नमय कलश चढ़ाना है, इसलिये सल्लेखना का स्वरुप कहेंगे। षष्ठ भावना अधिकार समाप्त Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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