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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार।
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उन द्वारों के भीतर जाने पर चारो तरफ प्रासादों (महल) की पंक्ति है। ये महल देवों के शिल्पियों द्वारा बनाये गये चारों तरफ अनेक प्रकार के हैं। उन महलों के स्वर्णमय स्तम्भ हैं, वज्रमणि अर्थात् हीरा, उससे बनी भूमि का बंधन (नींव, वीम) हैं, चन्द्रकान्त मणिमय दीवालें है, अनेक प्रकार के रत्नों से चित्र बने हुए हैं। कितने ही दो खण्ड के, कितने ही तीन खण्ड के. कितने ही चार खण्ड के हैं। कई प्रासाद चंद्रशालायक्त हैं। ऊपर के ऊँचे खुले छत को चन्द्रशाला कहते हैं। कितने ही वलभीछद युक्त हैं। अर्थात् ऊपर की खुली छत पर चारों ओर ऊँची दीवालें है।
वे प्रासाद अपनी उज्ज्वल प्रभा में डूब रहे हैं। कितने की अपनी उज्ज्वल शिखरों से चंद्रमा की चाँदनी से ही मानों बने हुए हैं ऐसे दिखाई देते हैं। कहीं बहुत शिखरवाले महल हैं, कहीं सभागृह है, कहीं नाट्यशालाएँ हैं, कहीं शय्यागृह हैं जिनकी चंद्रकांत मणिमय ऊँची सीढ़ियाँ हैं। उनमें देव, विद्याधर जाति के देव, सिद्ध जाति के देव, गंधर्व देव , पन्नग देव, किन्नर देव बहुत आदर सहित जिनेन्द्र के गुण गाते है; कोई बजाते हैं; अनेक जाति के वादित्रों से शब्द करते हैं, कोई संगीत नृत्य करते है; कोई जय-जयकार शब्द करते हैं; कोई जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन करते हैं।
उस रमणीक भूमि के मध्य भाग में नौ स्तूप हैं। वे स्तूप पद्मराग मणिमय पुंज के आकार उत्तुंग आकाश के अग्रभाग को लांघते हुए ऐसे हैं मानो समस्त देव-मनुष्यों के चित्त का अनुराग ही स्तूप के आकार को प्राप्त हो गया है। कैसे हैं स्तूप ? सिद्धों के तथा अर्हन्तों के प्रतिबिम्बों के समूह से सभी तरफ व्याप्त हो रहे हैं, अपनी ऊँचाई से जैसे आकाश को रोके हैं। वे स्तूप देव-विद्याधरों द्वारा सुमेरु के समान पूज्य हैं, उच्च देवों द्वारा तथा चारण ऋद्धि धारियों द्वारा आराध्य हैं।
ये नव स्तूप, जिनेन्द्र की नव केवल लब्धि ही मानो स्तूपों के आकार हो गई हैं। उन स्तूपों के अन्तराल में रत्नों के तोरणों की पंक्तियाँ इस प्रकार शोभित हो रही हैं मानों इंद्र धनुषमय ही हैं, तथा अपनी ज्योति से आकाशरुप आंगन को चित्ररुप कर रही हैं। वे स्तूप छत्रों सहित हैं; पताका
जा सहित हैं. समस्त मंगल द्रव्यों से भरे हैं। उन स्तपों में जिनेन्द्र की प्रतिमाओं का अभिषेक करके, तथा पूजन- स्तवन करके पश्चात् प्रदक्षिणा करके भव्य जीव हर्ष को प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार आधा योजन चौड़ी गोल विस्ताररुप प्रासाद और स्तूपों की भूमि के आगे जाकर आकाश के समान स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है। वह आकाश स्फटिक मणिमय कोट आकाश के समान निर्मल है, तथा जिनेन्द्र की समीपता के सेवन से निकट भव्य की आत्मा के समान उज्ज्वल उत्तुंग सद्वृत्ति व समृद्धि से युक्त है। उस स्फटिक मणिमय कोट के चारों दिशाओं में पद्मराग मणिमय चार महा उत्तुंग द्वार ऐसे हैं जैसे भव्य जीवों का राग पुंज निकलकर इन दरवाजों की लालिमारुप परिणित हो गया है। इन द्वारों पर भी पूर्व के समान मंगलद्रव्य, तोरण, मालायें आदि सभी सम्पदा हैं तथा द्वारों के समीप ही दैदीप्यमान गंभीर नव निधियाँ हैं। ___ तीनों कोटों के सभी चार-चार द्वारों मे हाथों में गदा आदि धारण किये देव खड़े हैं। प्रथम कोट के द्वारपाल व्यन्तरदेव हैं, दूसरे कोट के द्वार पाल भवनवासी देव हैं, तीसरे स्फटिक मणिमय कोट के द्वारपाल कल्पवासी देव हैं।
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