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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४१४] नाट्यशालाओं से आगे महावीथी के दोनों तरफ दो-दो धूप घड़े रखे हैं; उनसे निकलता हुआ धूप का धुंआ आकाश के आंगन में फैलता हुआ दिशाओं को सुगंधित कर रहा हैं; जो आकाश से उतरते हुए देवों को मेघ की शंका उत्पन्न कर देता हैं। उस महावीथी के दोनों बाजुओं के अन्तराल में चारो तरफ वन वीथी है उसका एक योजन चौड़ा गोल विस्तार है। उसमें एक पंक्ति ( श्रेणी) अशोक वृक्षों की, दूसरी पंक्ति सप्तपर्ण वन की, तीसरी पंक्ति चंपकवन की, चौथी पंक्ति आम्रवन की है। वे वन पत्र-पुष्प-फलों से शोभित मानों जिनेन्द्र को अर्घ ही दे रहे हैं। यह वन पंक्तियाँ दोनों तरफ दो योजन में हैं। उसमें रत्नमय अनेक पक्षी शब्द कर रहे हैं, भ्रमरों के नाद हो रहे हैं, नन्दनवन के समान करोंड़ों देव-देवांगनायें अनेक आभरण पहिने प्रकाश के पुंज के समान विचरण कर रहे हैं। उन वनों में कहीं तो कोयलों के शब्द ऐसे सुनाई दे रहे हैं मानो जिनेन्द्र की सेवा करने के लिये देवेन्द्रों को बुला रही हों, तथा वहाँ पर शीतल मंद सुगंध पवन द्वारा वृक्षों की शाखायें नृत्य कर रही हैं। उस वन की भूमि स्वर्णमय रज से व्याप्त है। इस वन में रत्नमय वृक्षों की ज्योति से रात्रि दिन का भेद नहीं हैं, निरन्तर उद्योतरूप है। वृक्षों की शीतलता के प्रभाव से सूर्य की किरणें आताप उत्पन्न नहीं कर पाती हैं। उन वनों में कहीं त्रिकोण, कहीं चतुष्कोण निर्मल निर्जन्तु जल से भरी वापिकायें हैं। उन वापिकाओं की रत्नों की सीढीयाँ व स्वर्णमय तट हैं। कही रत्नमय अनेक क्रीड़ा पर्व हैं, कहीं रमणीक अनेक रत्नमय महल हैं, कहीं अनेक प्रकार के क्रीड़ा मण्डप हैं, कहीं प्रेक्षागृह हैं; कहीं एक मंजिले, कहीं दो मंजिले, कहीं तीन मंजिले अनेक महलों की रचना है। कहीं हरितभूमि इंद्रगोप रत्नों से व्याप्त है। कहीं महानिर्मल सरोवर है, कहीं मनोज्ञ नदी है। प्राणियों का शोक दूर करनेवाला अशोक वृक्षों का वन ऐसा लगता है मानों जिनेन्द्र की सेवा से अपने लाल फूल, फल और पत्तों द्वारा राग का ही वमन कर रहा है। सप्तच्छद नाम का वन मानों अपने सप्तपत्रों द्वारा भगवान के सप्त परमस्थानों को ही दिखा रहा है। चम्पक वन अपने दीपक समान पुष्पों द्वारा मानों दीपांग जाति के कल्पवृक्षों का वन ही प्रभु की सेवा कर रहा है। सुन्दर आम्रवन कोयलों की कूकों द्वारा जिनेन्द्र का स्तवन कर रहा है। अशोक वन के बीच में एक अशोक नाम का चैत्यवृक्ष है जो तीन स्वर्णमय पीठों के ऊपर है। उन पीठों के चारों ओर तीन कोट हैं, एक-एक कोट के चार-चार द्वार हैं। वे द्वार छत्र, चमर, झारी, कलश, दर्पण, वीजना, ठोना, ध्वजा-इस प्रकार अष्ट मंगल द्रव्य, मकराकृत तोरण, मोतियों की माला आदि से शोभायमान हैं। जैसे जम्बूद्विप के स्थल के बीच में जम्बू वृक्ष सुशोभित है, वैसे ही अशोकवन स्थल के बीच में तीन पीठों के ऊपर अशोक नाम का चैत्यवृक्ष सुशोभित है। अशोक चैत्यवृक्ष की शाखाओं के अग्रभाग दशों दिशाओं में फैले हुए हैं जिन्हें देखते ही शोक नष्ट हो जाता है, अपने फूलों की सुगंध से समस्त आकाश को व्याप्त कर रहा है, अपने विस्तार से आकाश को रोक रहा है, मरकत मणिमय हरित काति संयुक्त पत्रों से भरा हुआ है, पद्मरागमणि Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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