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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [३८३ नारकी परस्पर में तलवारों से खण्ड–खण्ड करते हैं, करोंतों से चीरते हैं, कुल्हाड़ों से फाड़ते हैं, वसूलों से छीलते हैं, भालों से बेधते हैं, शूली पर छेदते हैं, पेट आदि मर्म स्थानों में छेदते हैं, फाड़ते हैं, नेत्र उखाड़ते हैं, भाड़ में सेक ते हैं. कढाहे में चरोते हैं. धानी में पेलते हैं। इस प्रकार नारकी परस्पर में मारण, ताड़न, त्रासन द्वारा जो दुःख नरक में भोगते हैं, वह कोटि जिह्वाओं द्वारा कोटि वर्षों तक एक क्षण के दुःख को कहने में कोई समर्थ नहीं है। नरक में जो दु:खकारी साम्रगी है उसके एक कण के बराबर भी इस लोक में नहीं है। यदि नरक की भूमि की सामग्री तथा नारकियों के विकारालरुप जैसा किसी को एक क्षण को स्वप्न में भी दिख जाये तो डर से तुरन्त ही मर जाये। नारकों की रस सामग्री ऐसी है जैसी यहाँ कांजीर ,विष ,हालाहल भी नहीं है। नारकियों के शरीरादि का एक कण भी यदि यहाँ आ जाये तो उसकी कडुवी गंध से यहाँ के पाँच इंद्रियों वाले जीव मरण कर जाय। नरक की मिट्टी की दुर्गन्ध ऐसी है कि यदि सातवें नरक की मिट्टी का एक कण भी यहाँ आ जाये तो साढ़े चौबीस कोस के चारों तरफ पंचेन्द्रिय जीव दुर्गन्ध से मरण कर जायें। पहले नरक के पहले पटल की मिट्टी की गंध से आधे कोश के जीव मर जाते हैं इतनी दुर्गन्धित है। आगे क्रम से एक-एक नरक पटल की मिट्टी की दुर्गन्ध में आधा-आधा कोश के अधिक-अधिक जीवों को मारने की शक्ति है। इस प्रकार उनचासवें पटल की मिट्टी की दुर्गन्ध में साढ़े चौबीस कोस तक के जीवों को मारने की शक्ति कही है। नरक में वैतरणी नदी का जल कैसा है ? जिसके स्पर्श मात्र से नारकियों के शरीर फट जाते हैं, उस जल का क्षार विष तो अग्नि से तपाये गये गर्म तेल के सींचने से भी अधिक अपरिमित दुःख को उत्पन्न करनेवाला है। वहाँ की हवा ऐसी है कि यहाँ के पर्वत उसके स्पर्श होने मात्र से भस्म होकर उड़कर जगत में बिखर जावें। नरक की वज्राग्नि को धारण करने को यहाँ के पृथ्वी, पर्वत, समुद्र कोई समर्थ नहीं हैं। स्वरुप का क्या वर्णन करें ? नारकियों के शब्द ऐसे भयंकर व कठोर हैं कि यहाँ हाथी व शेर सुन लें तो उनके हृदय फट जावें।। वहाँ कर्मरुप रखवाले नारकियों को सागरों तक निकलने नहीं देते हैं। जहाँ पर निरन्तर मार-मार ही सुनाई पड़ती है, वे रोते हैं, पकड़ते हैं, भागते हैं, घसीटते हैं, चूर्णरुप कर देते हैं तथा उनके अंग फिर पारे के समान मिल जाते हैं। वहाँ कोई रक्षक नही हैं, कोई दयावान नहीं है, कोई राजा नहीं, मित्र नहीं, माता नहीं, पिता नहीं, पुत्र नहीं, स्त्री नहीं, कुटुम्बादि नहीं, केवल पाप का भोग है। कोई छिपने का स्थान नहीं है, किसी से अपना दुःख दर्द कह सकें ऐसा कोई नहीं है, केवल क्रूर परिणामी महा भंयकर पापी हैं। जैसे यहाँ दुष्ट श्वानादि तिर्यंचों में देखते साथ ही बैर हो जाता है, उसी प्रकार नारकियों में बिना कारण ही परस्पर में बैर है। दुःख से भागकर वन में जाते हैं तो वहां शाल्मलि वृक्षादि के पत्ते शरीर को वसूले-कुल्हाड़े की तरह काटनेवाले आकर गिरते हैं, जिनसे अंग छिद जाते हैं, कट Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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