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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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के लिये अग्नि में प्रवेश करना, मीठे भोजन के लिये विष के वृक्ष को सींचना है। ये विषय महामोह मद को उत्पन्न करनेवाले हैं। इनका राग छोड़कर आत्मा का कल्याण करने का प्रयत्न करो।
मरण अचानक आवेगा। यह मनुष्य जन्म, यह जिनेन्द्र का धर्म छूट जाने के बाद मिलना अनन्तकाल में दुर्लभ है। जैसे नदी की तरंग निरंतर अरोक चलती ही जाती है, उलटकर कभी वापिस नहीं आती हैं, उसी प्रकार आयु,काय,रूप,बल ,लावण्य ,इन्द्रियों की शक्ति चले जाने पर वापिस नहीं आते हैं।
जो ये प्यारे स्त्री, पुत्रादि सामने दिखाई दे रहे हैं उनका संयोग सदा नहीं बना रहेगा, स्वप्न के संयोग समान जानो। इनके लिये अनीति-पाप करना छोड़कर शीघ्र व्रत-संयम आदि धारण करो। यह जगत लोगों को इन्द्रजाल के समान भ्रम उत्पन्न करानेवाला है। इस संसार में धन, यौवन, जीवन, स्वजन, परजन के समागम में जीव अन्धा हो रहा है। धनसंपदा तो चक्रवर्तियों की भी स्थायी नहीं रही तो अन्य पुण्यहीनों की कैसे स्थिर रहेगी ? यौवन तो जर के द्वारा नष्ट होगा ही। जीवन तो मरण सहित ही है। स्वजन-परजन वियोग के सन्मुख ही हैं। किसमें स्थिरबुद्धि करते हो ?
इस देह को नित्य स्नान कराते हो, सुगन्ध लगाते हो, आभरण-वस्त्रादि से सजाते हो, अनेक प्रकार के भोजन-पान कराते हो, बारम्बार इसी के दासपने में समय व्यतीत करते हो; शैया, आसन, काम, भोग, निद्रा, शीत, उष्ण अनेक प्रकार से सुख देकर इसे पुष्ट करते हो; इसके राग में ऐसे अन्धे हो रहे हो कि भक्ष्य-अभक्ष्य, योग्य-अयोग्य, न्यायअन्याय के विचार रहित होकर अपना धर्म बिगाड़ना, यश विनाशना, मरण होना, नरक जाना, निगोद में निवास करना आदि सभी को नहीं गिन रहे हो।
यह शरीर तो जल से भरे हुए मिट्टी के कच्चे घड़े के समान शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाला है। इस देह का उपकार कृतघ्न के उपकार के समान विपरीत फलेगा, सर्प को दुग्ध-मिश्री पिलाने के समान अपने लिये महादुःख, रोग, क्लेश, दुर्ध्यान, असंयम, कुमरण, निश्चय से नरक में पतन का कारण जानो। इस शरीर को ज्यों-ज्यों विषय आदि से पुष्ट करोगे त्योंत्यों यह आत्मा का अहित करने में अधिक समर्थ होगा। एक दिन भी भोजन नहीं दोगे तो बड़ा दुःख देगा। जो-जो इस शरीर में रागी हुए हैं वे सभी संसार में नष्ट होकर आत्मकार्य बिगाड़कर अनन्तानन्त काल नरक-निगोद में भटके हैं। जिन्होंने इस शरीर को तप-संयम में लगाकर कृश किया हैं उन्होंने ही अपना हित किया है।
ये इन्द्रियाँ ज्यों-ज्यों विषयों को भोगती हैं त्यों-त्यों तृष्णा बढ़ाती है। जैसे अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती है वैसे ही इन्द्रियाँ भी विषयों से तृप्त नहीं होती हैं। एक-एक इन्द्रिय के विषय की चाह से बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा भ्रष्ट होकर नरक में जा पहुँचे, अन्य की क्या कहें ? इन इन्द्रियों को दुःखदाई, पराधीन करनेवाली, नरक पहुँचाने वाली जानकर, इन्द्रियों का राग छोड़कर इनको वश में करो। संसार में लोग जितने निंद्यकर्म करते हैं वे समस्त इन्द्रियों के अधीन होकर ही करते हैं। इसलिये इन्द्रियोंरुप सर्पो के विष से आत्मा की रक्षा करो।
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