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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३६७ आया हूँ। एक तरफ तो अनेक प्रकार के कर्मों की सेना है, और एक तरफ मैं अकेला आत्मा हूँ। ऐसे बैरियों के संकट में मुझे सावधान होकर प्रमाद रहित रहना ही उचित है। यदि अब प्रमादी होकर रहूँगा तो कर्म मेरे ज्ञानदर्शन स्वरुप का घात करके एकेन्द्रियादिरुप पर्याय में जड़ अचेतन जैसा कर देगा। प्रबल ध्यानरुप अग्नि द्वारा मैं अपने आत्मा को, कर्ममल नष्ट करके पाषाण में से स्वर्ण के समान शुद्ध कब करूँगा? मुझे प्राप्त करने योग्य सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रुप मेरा स्वभाव ही है, अन्य सब परभाव तो पर ही हैं, वे स्वयं ही मुझ से भिन्न हैं। मेरा स्वरुप क्या है ? मुझे किस कारण से कर्मों का आस्त्रव होता है ? कर्म कैसे बंधते है ? कर्म कैसे निर्जरेंगे ? मुक्ति क्या है ? मुक्ति का स्वरुप क्या है ? मुक्ति का बाधा रहित निराकुलता लक्षण ऐसा स्वभाव से उत्पन्न सुख मुझे किस उपाय से प्राप्त होगा? अपने स्वरुप का ज्ञान होने पर सकल तीनलोक का ज्ञान हो जाता है । कर्ममल दूर हो जाने पर मेरा सर्वज्ञ- सर्वदर्शी स्वभाव मुझमें से ही प्रकट होगा। जितने समय तक मेरा बाह्य पदार्थो के साथ संबंध है उतने समय तक मेरी स्थिरता अपने स्वभाव में स्वप्न में भी होना दुर्घट (कठिन ) है। इसलिये मुझे भेदविज्ञान से बाह्य पदार्थो से भिन्न होने का ही उपाय करना चाहिये। इस प्रकार अपाय विचय नाम के धर्मध्यान के दूसरे भेद का वर्णन किया ।२।। विपाक विचय धर्मध्यान (३) : अब विपाक विचय धर्मध्यान के स्वरुप का वर्णन करते हैं। ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय को अपने आत्मा से भिन्न चिन्तवन करना वह विपाक विचय है। अनादिकाल से नरकादि गतियों में उत्पन्न होकर नारकी, तिर्यंच, देव, मनुष्यादि पर्याय धारण करना, इंद्रियों का पाना, शरीरादि धारण करना, रुप रस गंध स्पर्श आदि पाना, संहनन, बल, पराक्रम, राज्यसंपदा, वैभव, परिवार आदि सभी कर्म के उदय जनित हैं , मेरे स्वरुप से भिन्न हैं। मेरा स्वरुप ज्ञाता दृष्टा, अविनाशी, अखण्ड है, कर्म की उदयजनित परिणति से भिन्न है। जितने संयोग हैं वे सब कर्मजनित हैं। अतः कर्म के उदयजनित परिणति से अपने को भिन्न अवलोकन करके कर्म के उदयजनित राग-द्वेष , जीवन-मरण आदि से भी अपने को भिन्न ही अवलोकन करना, वह विपाक विचय धर्मध्यान है। पूर्व काल में बांधे हुए कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का संयोग पाकर अनेक प्रकार का रस देते हैं। कर्म की मूल प्रकृति आठ हैं, आठ के ही एक सौ अड़तालीस भेद है, तथा एक-एक के असंख्यात लोकमात्र भेद हैं। वे समस्त एकेन्द्रियादि जीवों के भिन्न-भिन्न उदय देखने से ज्ञात हो जाते हैं। सामान्य से जीव ज्ञान स्वभावी है, स्वपर को जाननेवाला है, असंख्यात प्रदेशी है, कर्मजनित देह प्रमाण है, सुख-दुःख का भोक्ता है; तथापि जीव ने अपने भिन्न-भिन्न परिणामों द्वारा अनेक प्रकार के कर्मों का बंध किया है, उन कर्मों का रस भी उदयकाल में भिन्न-भिन्न दिखाई देता है। समस्त जीवों के प्रकृतिरुप लाभ-अलाभ, सुख-दुःख , रागद्वेष , पुण्य-पाप, संयोग-वियोग, आयु, काय , Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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