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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार [३५१ ऐसा भी विचार करो - मुनिराज तो ग्रीष्म में आताप की वेदना तथा शीतऋतु में शीत की वेदना कर्मों को जीतने के लिये बड़े उत्साह से सहते हैं; तुम्हारे यहाँ तो कर्म स्वयं ही उदय में आ गया है तो इसे शूरपना द्वारा जीतो। यह भी देखो कि - कितने ही मनुष्य निर्धन हैं, अकेले हैं, रहने का स्थान नहीं है, खान-पान नहीं मिलता है, कोई पूछनेवाला नहीं है, कोई सहायता करनेवाला नहीं है, शरीर में एक के बाद एक रोग का क्लेश आता रहता है; कोई पानी पिलाने वाला भी नहीं है। उनका विलाप कौन सुनता है ? ऐसा दुःखी अज्ञानी भी अपने को असहाय, अकेला, निर्धन समझकर आप ही आप भोगता है। तुम्हारे पास तो शयन करने को स्थान है, खाने को भोजन है, रोग की दवा है, ठंडी गर्म सब सामग्री है, सेवा करनेवाला सेवक है, स्त्री है, पुत्र है, मित्र है, मल-मूत्रादि सफाई करने वाला है; अब तुम्हें समता भाव से वेदना सहना चाहिये, कायरता छोड़कर, धैर्य धारण करके रोगजनित आर्तध्यान छोड़ना ही योग्य है। धर्म धारण करने का ये ही फल है। जिनका कोई सहायता करनेवाला नहीं, वे भी धैर्य धारण करते हैं। हे आत्मन् ! यह जिनधर्म धारण करके भी तथा कर्म के उदय को किसी से भी नहीं रोका जा सकनेवाला ( अरोक) समझकर भी क्यों कायरता धारण करते हो? जेल में भी बहुत रोग की वेदना भोगते हये कितने ही मर जाते हैं। तिर्यंचों में घोर रोग की वेदना. रोगी होकर निर्जन वन में गिर पड़ना, किचड़ में फंस जाना, गर्मी में, ठंड में पड़े रहना, पड़े हुये को अनेक जीवों द्वारा काट-काटकर खाया जाना इत्यादि घोर वेदना संसार में भोगते हैं संसार तो दुःखों से ही भरा है। ऐसा कौन सा रोग है जो संसार में तुमने अनेक बार नहीं भोगा है। इसलिये रोग में जिनधर्म ही शरण है, जिनेन्द्र के वचन को ही जन्म-मरण जरा रोग का नाश करनेवाला जानो। अन्य औषधि, इलाज तो साताकर्म की सहायता से असाताकर्म के मन्द उदय होने पर उपकार करते हैं। असाता के प्रबल उदय में समस्त उपायों को निष्फल जानकर, अशुभ कर्म के नाश का कारण परम समताभाव ही धारण करना श्रेष्ठ है। इस प्रकार रोगजनित आर्तध्यान को जीतने की भावना कही ।३। निदान जनित आर्तध्यान (४) : अब निदान जनित चौथे आर्तध्यान के स्वरुप का वर्णन करते हैं। देवों के भोगों की वांछा करना, अप्सराओं के नृत्य आदि देखने की वांछा करना , अपना सौभाग्य चाहना, अद्भुत सुंदर रुप चाहना, अखण्ड ऐश्वर्य सहित राज-विभूति की वांछा करना, सुंदर महल-मकान रहने को चाहना, रुपवती स्त्री के कोमल सुकुमार अंगों का स्पर्श चाहना, शैया आसन आभरण वस्त्र, सुगन्ध मिष्ठ वांछित भोजन चाहना, अनेक रस सहित क्रीड़ा विहार चाहना। बैरियों का तिरस्कार मरण चाहना, अपने पास वांछित विभति चाहना, समस्त जगत के बीच अपनी उच्चता चाहना, अपनी आज्ञा जो माने उसकी विजय चाहना, अन्य का तिरस्कार चाहना, मद को पुष्ट करनेवाली समस्त पंडितों का तिरस्कार करनेवाली विद्या चाहना राजनीति को अपने आधीन चाहना. आजीविका की Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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