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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार [३३१ गमन करते हैं, उसके वृत्ति परिसंख्यान तप होता है। यह दुर्दर तप मुनिराजों से ही होता है, अन्य गृहस्थ इसे धारण करने में समर्थ नहीं होते हैं। गृहस्थ भी वीतरागी गुरुओं के प्रसाद से इस प्रकार की प्रतिज्ञायें करते हैं- मैंने जिनेन्द्र धर्म पाया है, इसलिये उज्ज्वल धर्म का घात जिसमें नहीं हो ऐसी रीति से ही जीविका करूँगा; जिसमें श्रद्धान, ज्ञान, व्रत नष्ट हो जाय वह जीविका नहीं करूँगा। बहुत हिंसा, झूठ, मायाचार जिसमें करना पड़े ऐसी नौकरी नहीं करूँगा; खोटे पाप के वणिज व्यवहार नहीं करूँगा; उज्ज्वल वणिज, बहुत आरंभ रहित, कपट रहित, असत्य रहित, जो जीविका हो वह ही मुझे करना, अन्य नहीं करना इत्यादि आजीविका का नियम करता है। इतना परिग्रह, इतना धन, इतने वस्त्र ही से भोग उपभोग करना, रोग हो जाय तो इतनी ही औषधि खाऊँगा, इन औषधियों के सिवा अन्य औषधियाँ नहीं खाऊँगा; आज मेरे घर में जो भोजन तैयार हो जायेगा वही खाऊँगा, मैं मुख से कहकर बनवाऊँगा नहीं, माँगकर खाऊँगा नहीं। आज मैं अपने घर में, अपने ही घर का बना, थाली में प्रथम बार के परोसने में जितना भोजन आ – जायेगा उतना ही भोजन करूँगा, फिर दुबारा मागूंगा नहीं इत्यादि प्रकार की इच्छाओं को रोकने के लिये गृहस्थ भी अपने मन में प्रतिज्ञा करते हैं।३। रस परित्याग तप : अब रस परित्याग तप का स्वरुप कहते हैं। दूध, दही, घी, नमक, गुड़, तेल- ये छह प्रकार के रस हैं। इनमें से जिह्मा आदि इंद्रियों के दमन के लिये, मन की लोलुपता मिटाने के लिये, काम को जीतने के लिये, निद्रा को घटाने के लिये, संयम की साधना के लिये रसों का त्याग करना, कभी एक रस का त्याग, कभी दो रस का त्याग, कभी तीन रस का त्याग, कभी छहों रसों का त्याग करना वह रस परित्याग तप हैं। संसारी जीव मीठा रस आदि खाने के लोलुपी होकर अभक्ष्य-भक्षण करतें हैं, लज्जा छोड़ देते हैं, व्रत तप बिगाड़ देते हैं, भोजन की लोलुपता से शूद्रादि के अयोग्य कुल में भोजन करते हैं, दीन होकर गिड़गड़ाते हैं, रसादि खाने के लिये लड़ते हैं, मरते हैं, गिरते हैं, प्रायः रसों के लोभी होकर भ्रष्ट हो रहे हैं। कोई अन्य पुरुष के रसरुप भोजन करने की लालसा नहीं रहती है। उत्तम गृहस्थ तो पहिले से ही अनेक प्रकार के घी, मीठा, रसादि में लालसा को छोड़कर अपने घर में ही खारा, रोना, रुखा, चिकना इत्यादि जैसा कर्म सहज विधि मिला दे वैसा भोजन संतोषपूर्वक खाता है। रसरुप भोजन की चर्चा स्वप्न में भी नहीं करता है। रसों की लम्पटता दोनों लोकों में भ्रष्ट करनेवाली है। अतः लालसा छोड़ने के लिये, इंद्रियों को वश में करने के लिये, परम संवर और निर्जरा करने के लिये, दीनता का अभाव करने के लिये, संतोष धारण करने के लिये रसपरित्याग तप करना ही श्रेष्ठ है।४। विविक्त शयनासन तप : अब विविक्त शयनासन तप का स्वरुप कहते हैं। शून्यगृह , एकान्त स्थान, विकलत्रय जीवों की बाधा रहित, स्त्री-नपुंसक-असंयमी पुरुषों के आवागमन से रहित स्थान में, पर्वतों की गुफा , वनखण्ड में ध्यान-अध्ययन करना, शयन-आसन करना वह विविक्त शयनासन Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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