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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
उत्तम तप धर्म अब उत्तम तपधर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। इच्छा का निरोध करना वह तप है। तप चार आराधनाओं में प्रधान है। जैसे स्वर्ण को तपाने से – सोलह बार पूर्ण उष्णता (ताप) देने पर वह समस्त मैल छोड़कर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी बारह प्रकार के तपों के प्रभाव से कर्ममल रहित होकर शुद्ध हो जाता है।
अज्ञानी मिथ्यादृष्टि तो शरीर को पंचाग्नि द्वारा तपाने में, तथा अनेक प्रकार के कायक्लेश सहने को तप कहता है किन्तु वह तप नहीं है। शरीर को जला देने से, सुखाकर कृष कर देने से क्या होता है ? मिथ्यादृष्टि ज्ञान पूर्वक आत्मा को कर्मों के बन्धन से छुड़ाना नहीं जानता है। आत्मा कर्म-कलंक रहित तो भेद-विज्ञान पूर्वक अपने आत्मा के स्वभाव को तथा राग-द्वेष-मोहादि भावकर्मरूप मैल को भिन्न-भिन्न देखकर जिस प्रकार से राग-द्वेषमोहरूप मैल भिन्न हो जाय तथा शुद्ध ज्ञान-दर्शनमय आत्मा भिन्न हो जाय, वह तप है।
इसीलिये कहा है : मनुष्य भव पाकर यदि स्व-पर तत्त्व का ज्ञान किया है तो मन सहित पाँचों इंद्रियों को रोककर, विषयों से विरक्त होकर, सभी परिग्रहों को छोड़कर, बंध करनेवाली राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति को छोड़कर, पाप के आलम्बन से छूटने के लिये, ममता नष्ट करने के लिये वन में जाकर तप करना चाहिये। ऐसा तप धन्य पुरुषों के द्वारा ही होता है।
संसारी जीव के ममतारूप बड़ी फांसी है। वह ममतारूप जाल में फंसा हुआ, घोर कर्म करता हुआ, महापाप का बंध करके, रोगादि की तीव्र वेदना से तथा स्त्री-पुत्रादि समस्त कुटुम्ब व परिग्रह के वियोगादि से उत्पन्न तीव्र आर्तध्यान से मरण करके दुर्गतियों के घोर दुःखों को प्राप्त करता है।
तपोवन को प्राप्त होना दुर्लभ है। तप तो कोई महा भाग्यवान पुरुष पापों से विरक्त होकर, समस्त स्त्री-कुटुम्ब-पुत्र-धनादि परिग्रह से ममत्व छोड़कर, परम धर्म के धारक वीतराग निर्ग्रन्थ गुरुओं के चरणों की शरण में पाता है। गुरुओं को प्राप्त करके जिसके अशुभकर्म का उदय अति मंद हो गया हो, सम्यक्त्वरूप सूर्य का उदय प्रकट हुआ हो, संसार-विषय-भोगों से विरक्तता उत्पन्न हुई हो वही तप-संयम ग्रहण करता है।
ऐसा दुर्द्धर तप धारण करके भी यदि कोई पापी विषयों की इच्छा से बिगाड़ता है,उसको अनन्तानन्त काल तक फिर तप प्राप्त नहीं होता है। अतः मनुष्य भव पाकर, तत्त्वों का स्वरूप जानकर, मन सहित पाँच इंद्रियों को रोककर, वैराग्यरूप होकर, समस्त परिग्रह छोड़कर, वन में एकाकी ध्यान में लीन होकर बैठना वह तप है।
__ परिग्रह में ममता नष्ट होकर वांछा रहित हो जाना, तथा प्रचण्ड काम का खण्डन करना वह बड़ा तप है। नग्न दिगम्बर रूप धारण करके शीत की, आतप की, पवन की, वर्षा की, डांस, मच्छर, मक्षिका, मधुमक्षिका, सर्प, बिच्छू इत्यादि से उत्पन्न हुई घोर वेदना को कोरेनग्न शरीर पर सहना वह
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