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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३०४]
प्रभाव देखकर अदेखपना भावरूप मलिनता छोड़कर शौचधर्म अंगीकार करो। दूसरों का पुण्य का उदय देखकर दुःखी नहीं होओ। इस मनुष्य पर्याय को तथा इंद्रिय, ज्ञान, बल, आयु, संपदादि को अनित्य, क्षणभंगुर जानकर, एकाग्रचित से अपने स्वरूप में द्दष्टि रखकर, अशुभ भावों का अभाव करके आत्मा को शुचि करो। शौच ही मोक्ष का मार्ग है, शौच ही मोक्ष का दाता है। इस प्रकार शौच धर्म का वर्णन किया। ५।
उत्तम संयम धर्म अब उत्तम संयमधर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। संयम का लक्षण इस प्रकार जानना - अहिंसा अर्थात् हिंसा को त्यागकर दयारूप रहना, हित-मित-प्रिय-सत्य वचन बोलना, पर के धन में वांछा का अभाव करना, कशील छोड़ना, परिग्रह का त्याग करना, ये पाँच व्रत हैं। पाँच पापों का एकदेश त्याग करना वह अणुव्रत है, सम्पूर्ण त्याग करना वह महाव्रत है। इन पाँच व्रतों को दृढ़ धारण करना, पाँच समिति पालना। उनमें गमन की शुद्धता ईर्या समिति है, वचन की शुद्धता भाषा समिति है, निर्दोष शुद्ध भोजन करना ऐषणा समिति है, शरीर तथा उपकरणों को नेत्रों से देख-शोध कर उठाना-धरना वह आदान निक्षेपण समिति है, मलमूत्र-कफादि मलों को ऐसे स्थान में फेंकना-त्यागना जहाँ अन्य जीवों को ग्लानि, दुःख, बाधादि उत्पन्न नहीं हो वह प्रतिष्ठापन समिति है।
इन पाँच समितियों का पालना, क्रोध-मान-माया-लोभ-इन चार कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति - ये तीन दण्ड हैं, इन दण्डों का त्याग करना, तथा विषयों में दौड़नेवाली पाँच इंद्रियों को वश में करना-जीतना वह संयम है।
पाँच महाव्रतों का धारण, पाँच समितियों का पालन, चार कषायों का निग्रह, तीन दण्डों का त्याग, पाँच इंद्रियों की विजय को जिनेन्द्र के परमागम में संयम कहा है। वह संयम प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। पूर्व के बाँधे अशुभ कर्मों का अत्यंत मंद उदय होने से मनुष्यजन्म, उत्तम देश, उत्तम कुल , उत्तम जाति, इंद्रियों की परिपूर्णता, निरोगता, कषायों की मंदता, उत्तम संगति, जिनेन्द्र के आगम का सेवन, सच्चे गुरुओं का संयोग, सम्यग्दर्शन आदि अनेक दुर्लभ सामग्री का संयोग होने पर संसार, देह, भोगों से अति विरक्तता के धारक मनुष्यों को अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से देश संयम होता है; तथा अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान दोनों कषायों के क्षयोपशम से सकल संयम होता है। इसलिये संयम प्राप्त करना महादुर्लभ है।
नरकगति में, तिर्यंचगति में व देवगति में तो संयम होता ही नहीं है। किसी तिर्यंच के अपनी पर्याय की योग्यता के अनुसार कभी देशव्रत होते हैं, मनुष्य पर्याय में भी नीच कुलादि में , अधम देशों में, इंद्रियों से पीड़ित, अज्ञानी, रोगी, दरिद्री, अन्यायमार्गी, विषयानुरागी, तीव्र कषायी, निंद्यकर्मी, मिथ्यादृष्टियों को संयम कभी नहीं होता है। इसलिये संयम प्राप्त करना अति दुर्लभ है। ऐसे दुर्लभ संयम को भी पाकर कोई मूढ़बूद्धि यदि विषयों का लोलुपी होकर छोड़ देता है, किसी प्रकार से नष्ट कर देता है तो वह अनन्तकाल तक जन्म-मरण करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है।
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