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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
हित,
को प्राप्त होता है। तप-संयम आदि सभी सत्य वचन से शोभित होते हैं। जैसे विष मिल जाने से मिष्ठ भोजन का नाश हो जाता है, अन्याय से धर्म व यश का नाश हो जाता है, उसी प्रकार असत्य वचन से अहिंसा आदि सभी गुणों का नाश हो जाता है।
असत्य वचन से अप्रतीति, अकीर्ति, अपवाद, स्वयं को व अन्य को संक्लेश, अरति, कलह, बैर, भय, शोक, बध, बंधन, मरण, जिह्वाछेद, सर्वस्व , हरण, बन्दीगृह में प्रवेश, दुर्ध्यान, अपमृत्यु, व्रत-तप-शील-संयम का नाश , नरकादि दुर्गति में गमन, भगवान की आज्ञा का भंग, परमागम से पराङ्मुखता, घोर पाप का आस्रव इत्यादि हजारों दोष प्रकट होते हैं। इसलिये हे ज्ञानीजन हो! लोक में प्रिय, हित, मधुर वचन बहुत भरा है, सुन्दर शब्दों की कमी नहीं है, फिर निंद्य असत्य वचन क्यों बोलते हो ?
रे, तू इत्यादि नीच पुरुषों के बोलने के वचन प्राण जाने पर भी नहीं कहो। अधमपना और उत्तमपना तो वचनों से ही जाना जाता है। नीचों के बोलने के निंद्य वचन को छोड़कर प्रिय,
मधर. पथ्य. धर्मसहित वचन कहो। जो दसरों को दःख देने वाले वचन कहते हैं तथा झूठा कलंक लगाते हैं उनकी बुद्धि यहाँ पर ही पाप से भ्रष्ट हो जाती है, जिह्वा गल जाती है, अंधे हो जाते हैं, पैर टूट जाते हैं, दुर्ध्यान से मरकर नरक-तिचंच आदि कुगति के पात्र हो जाते हैं। सत्य के प्रभाव से यहाँ उज्ज्वल यश, वचन की सिद्धि, द्वादशांगादि श्रुत का ज्ञान पाकर, फिर इन्द्रादि महर्द्धिकदेव होकर, तीर्थंकर आदि उत्तम पद पाकर निर्वाण को चले जाते हैं। इसलिये उत्तम सत्यधर्म ही को धारण करो। इस प्रकार सत्य धर्म का वर्णन किया।
उत्तम शौच धर्म अब उत्तम शौचधर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। शौच का अर्थ पवित्रता उज्ज्वलता है। बहिरात्मा तो देह की उज्ज्वलता, स्नानादि करने को शौच कहते हैं, किन्तु देह तो सप्त धातुमय, मलमूत्र से भरी जल से धोने से शुचिपने को प्राप्त नहीं होती है। जैसे मल से बना, मल से भरा घड़ा जल से धोने से शुद्ध नहीं होता है, उसी प्रकार शरीर भी शुद्ध उज्ज्वल जल से धोने से शुद्ध नहीं होता है। शरीर को शुद्ध मानना वृथा है।
शौचधर्म तो आत्मा को उज्ज्वल करने से होता है। आत्मा लोभ से, हिंसा से अत्यन्त मलिन हो रहा है, अतः आत्मा के लोभमल का अभाव होने से शुचिता होगी। जो अपने आत्मा को देह से भिन्न ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोगमय, अखण्ड, अविनाशी, जन्म-जरा-मरण रहित, तीनलोकवर्ती समस्त पदार्थों का प्रकाशक सदाकाल अनुभव करता है, ध्याता है उसे शौचधर्म होता है। मन को मायाचार, लोभादि से रहित उज्ज्वल करने से शौचधर्म होता है। जिसका मन काम, लोभादि से मलिन हो रहा है उसे शौचधर्म नहीं होता है। धन की गृद्धता व अतिलम्पटता का त्याग करने से शौचधर्म होता है।
परिग्रह की ममता छोड़कर, इंद्रियों के विषयों का त्यागकर, तपश्चरण के मार्ग में प्रवर्तन करना वह शौचधर्म है। ब्रह्मचर्य धारण करना वह शौचधर्म है। आठ मदों से रहित विनयवानपना भी शौचधर्म
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