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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २६०] समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, अद्भुत अप्रमाण शरीर का रूप सौंदर्य, महासुगंधयुक्त शरीर, अप्रमाण बल, एक हजार आठ लक्षण, प्रिय-हित-मधुर वचन – ये सभी पूर्व जन्म में सोलह कारण भावना भाई थीं उनका प्रभाव है। वे इंद्र द्वारा अपने अंगठे में रखा हआ अमृतपान करते हैं, माता के स्तन में से निकला दुग्धपान नहीं करते हैं। फिर वे अपनी अवस्था के बराबर बने देव कुमारों के साथ खेलते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं। स्वर्ग लोक से आये आभरण, वस्त्र , भोजन आदि मनोवांछित सामग्री लिये हुए देव हमेशा रात-दिन खड़े रहते हैं। पृथ्वी का भोजन, आभरण, वस्त्र आदि अंगीकार नहीं करते हैं, स्वर्ग से आये हुए ही भोगते हैं। कुमारकाल व्यतीत हो जाने के पश्चात् इन्द्रादि द्वारा अद्भुत उत्साह पूर्वक किये गये उत्सव में पिता द्वारा भक्ति पूर्वक सौंपे गये राज्य को ग्रहण कर भोगते हैं। अवसर आ जाने पर संसार, शरीर, भोगों से विरागता उत्पन्न होती है, तब अनित्यादि बारह भावना भाने लगते हैं। बारह भावना भाते ही लोकान्तिक देव आकर वंदना, स्तवनरूप संबोधन तथा वैराग्य की अनुमोदना करते हैं। जिनेन्द्र का विरागभाव होते ही चार निकाय के इन्द्रादि देव अपने आसन कंपायमान होने से अवधिज्ञान से जिनेन्द्र के तप का अवसर जानकर बड़े उत्साह पूर्वक आकर अभिषेक करके देवलोक के वस्त्र आभरणों से भक्ति सहित सजाते हैं। फिर रत्नमयी पालकी बनाकर उसमें जिनेन्द्र को बैठाकर, अप्रमाण उत्सव तथा जय-जयकार शब्दोच्चार सहित तप के योग्य वन में ले जाकर उतारते हैं। वहाँ वे सभी वस्त्र, आभरण त्यागते हैं, देव उन्हें अधर में ही झेलकर अपने मस्तक पर रख लेते हैं। फिर वे जिनेन्द्र सिद्धों को नमस्कार करके पंचमुष्टि केशलोंच करते हैं। वहाँ केशों को उत्तम जानकर इन्द्र रत्नमयपात्र में रखकर बड़ी भक्ति से क्षीर समुद्र में क्षेप देते हैं। समोशरण की महिमा कुछ काल के पश्चात् तप के प्रभाव से व शुक्ल ध्यान के प्रभाव से क्षपकश्रेणी में घातिया कर्मों का नाश करके जिनेन्द्र केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, तब अरहन्तपद प्रकट होता है। केवलज्ञानरूप नेत्र द्वारा भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनन्तानन्त पर्यायों सहित अनुक्रम से ( क्रमबद्ध) एक समय में युगपत् सभी को जानते देखते हैं। तब चार निकाय के देव ज्ञानकल्याणक की पूजा स्तवन करके भगवान का उपदेश होने के लिये अनेक रत्नमयी समोशरण की रचना करते हैं। समोशरण की विभूति का वर्णन कौन कर सकता है ? पृथ्वी से पाँच हजार धनुष ऊँचा, जिसकी बीस हजार सीढ़ियाँ होती हैं, उसके ऊपर बारह योजन प्रमाण इन्द्रनील मणिमय गोल भूमि, उसके ऊपर अप्रमाण महिमा सहित समोशरण रचना होती है। जहाँ समोशरण की रचना होती हैं व भगवान का विहार होता है वहाँ अंधों को दिखने लगता है, बहरे सुनने लग जाते हैं, लूले चलने लग जाते हैं, गूंगे बोलने लग जाते हैं। वीतरागता की अद्भुत महिमा है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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