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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२४५ नवीन शिष्यों के आगे श्रुत का इस प्रकार अर्थ प्रकाशित करना जिससे संशय आदि रहित, स्वपर पदार्थों का यथार्थ स्वरूप शिष्यों के हृदय में प्रकट हो जाये। जिस प्रकार पाप-पुण्य का स्वरूप, लोक-अलोक का स्वरूप, मुनि-श्रावक के धर्म का सत्यार्थ निर्णय हो जाय उस प्रकार ज्ञानाभ्यास करना। अपने चित्त में संसार, शरीर, भोगों, से विरक्तता चिन्तवन करना। संसार, शरीर, भोगों का यथार्थ स्वरूप का चिन्तवन करने से राग-द्वेषमोह आदि ज्ञान को विपरीत नहीं कर सकते हैं। समस्त द्रव्यों में मिला हुआ होने पर भी एक आत्मा का भिन्न अनुभव होना, वह ही ज्ञानोपयोग है। ज्ञानोपयोग द्वारा ज्ञान का अभ्यास करने से विषयों की वांछा नष्ट हो जाती है, कषायों का अभाव हो जाता है। माया, मिथ्यात्व, निदान – इन तीन शल्यों का ज्ञानाभ्यास से नाश हो जाता है। ज्ञान के अभ्यास से ही मन स्थिर होता है, अनेक प्रकार के विकल्प नष्ट हो जाते हैं। ज्ञानाभ्यास से ही धर्मध्यान में - शुक्लध्यान में अचल होकर बैठा जाता है। ज्ञानाभ्यास से ही व्रत-संयम से चलायमान नहीं होते हैं, जिनेन्द्र का शासन प्रवर्तता है, अशुभ कर्मों का नाश होता है, जिन धर्म की प्रभावना होती है। ज्ञान के अभ्यास से ही लोगों के हृदय में पूर्व का संचित कर रखा हुआ पापरूप ऋण नष्ट हो जाता है। अज्ञानी जिस कर्म को घोर तप करके कोटि पूर्व वर्षों में खिपाता है, उस कर्म की ज्ञानी अंतर्मुहूर्त में ही खिपा देता है। जिनधर्म का स्तम्भ ज्ञान का अभ्यास ही है। ज्ञान के प्रभाव से ही समस्त जीव विषयों की वांछा रहित होकर संतोष धारण करते हैं। ज्ञान के अभ्यास से ही उत्तम क्षमादि गुण प्रकट होते हैं, भक्ष्य-अभक्ष्य का योग्य-अयोग्य का, त्यागने योग्य-ग्रहण करने योग्य का विचार होता है। ज्ञान बिना परमार्थ और व्यवहार दोनों नष्ट हो जाते हैं। ज्ञान रहित राजपुत्र का भी निरादर होता है। ज्ञान समान कोई धन नहीं है, ज्ञान के दान समान कोई दान नहीं है। दुःखित जीव को सदा ज्ञान ही शरण है। ज्ञान ही स्वदेश में परदेश में आदर करानेवाला परम धन है। ज्ञानधन को कोई चोर चरा नहीं सकता है. लूटनेवाला लूट नहीं सकता है। खोंसनेवाला खोंस नहीं सकता है, किसी को देने से घटता नहीं है, जो देता है उस का ज्ञान बढ़ जाता है। ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, ज्ञान से ही मोक्ष प्रकट होता है। सम्यग्ज्ञान आत्मा का अविनाशी स्वाधीन धन है। ज्ञान बिना संसार समुद्र में डूबनेवाले को हस्तावलंबन देकर कौन रक्षा कर सकता है ? विद्या के समान कोई आभूषण नहीं है। विद्या बिना केवल आभूषणों से कोई सत्पुरुषों के द्वारा आदरने योग्य नहीं हो जाता है। निर्धन को भी परम निधान प्राप्त करानेवाला एक सम्यग्ज्ञान ही है। __ हे भव्यजीवों! भगवान वीतराग करुणानिधान गुरु तुम्हारे लिये यह शिक्षा दे रहे हैं कि - अपनी आत्मा को सम्यग्ज्ञान के अभ्यास में ही लगाओ, तथा मिथ्यादृष्टियों के द्वारा कहे गये मिथ्याज्ञान का दूर से ही परित्याग करो। सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान की परीक्षा करके ग्रहण करो, अपनी संतान को पढ़ाओ, अन्य लोगों को भी विद्या का अभ्यास कराओ। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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