SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जिनके व्रत (प्रतिमा) तो नहीं है किन्तु जिनेन्द्र के कहे तत्त्वों के श्रद्धानी हैं, जन्ममरणादिरूप संसार परिभ्रमण से भयभीत है, चार प्रकार के संघ में रहकर हित करने की इच्छा सहित हैं, संसार-शरीर-भोगों से विरक्ति का भाव आया है, जिनशासन का प्रसार करनेवाले, अपनी निंदा-गर्दा करते हुए स्व-पर तत्त्व का स्वरूप विचारने में प्रवीण हैं, जिनदेव द्वारा कहे गये तत्वों में - धर्म में दृढ़ता धारण करते हैं, धर्म तथा धर्म के फल में अनुराग सहित है, सभी जीवों की दया से चित्त भरा हैं, मंदकषायी, पंच परमेष्ठी के भक्त इत्यादि सभी सम्यक्त्व के गुणों के धारी गृहस्थ जघन्यपात्र हैं। इस प्रकार तीनों तरह के पात्रों में यथा योग्य आहार, औषधि, शास्त्र, वस्तिका, स्थान, वस्त्र, जीविका, जीने की स्थिरता के कारण, भक्ति एवं विनय सहित दिये हुए दान भावों के अनुसार उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि में दातार को उत्पन्न करते हैं। सम्यग्दृष्टि दातार को सौधर्म आदि स्वर्ग में महान ऋद्धिधारी देवों में उत्पन्न करते हैं। ___कुपात्र : कुपात्र के लक्षण इस प्रकार जानना – जिनके हृदय में मिथ्या धर्म की दृढ़ वासना बैठी है ऐसे घोर तप करनेवाले, सभी जीवों की दया करने में उद्यमी , असत्य व कठोर वचन से पराङमुख, सबसे प्रियवचन कहनेवाले, धन-स्त्री-कुटुम्ब से निस्पृही, निरंतर मिथ्या धर्म का सेवन करनेवाले, जप-तप-शील-संयम-नियम में दृढ़ प्रीति रखनेवाले, मंद कषायी, परिग्रह रहित, विषय-कषायों के त्यागी, एकान्त बाग-वनादि में रहनेवाले. आरंभ रहित. परीषह सहनेवाले, संक्लेश रहित, संतोष सहित, रस-नीरस भोजन को समभाव से ग्रहण करनेवाले, क्षमा के धारक, आत्मज्ञान रहित बाह्य क्रिया काण्ड से मोक्ष माननेवाले सभी कुपात्र हैं। कितने ही जिनधर्म का पक्षग्रहण करनेवाले भी एकान्ती, हठग्राही, अपनी बुद्धि ही से अपने आप को धर्मात्मा मानते हैं; उनमें से भी कुछ तो जिनेन्द्र का पूजन, आराधन, गान, भजन से ही अपने को कृतकृत्य मानकर बाह्य पूजन-स्तवन आदि में तत्पर हैं तथा अनय ज्ञानाभ्यास, व्रतादि में शिथिलता रखते हैं। कितने ही जलादि से धोना, सोधना, अन्नादि को धोना, स्नानकर भोजन करना , अपने हाथ से बनाया भोजन करना; वस्त्रादि को धोना, धोये हुए स्थान में जीमना इत्यादि क्रिया करके ही अपने को धर्म हो गया - ऐसा मानते हैं। कितने ही देखकर चलना, सोधकर, चलना, सोना, बैठना, जल को बड़े यत्नाचार पूर्वक काम में लेना, इतने से ही अपने को कृतकृत्य मानते हैं, अन्य क्रियारहित को निंद्य जानते हैं। कितने ही उपवासादि तप-व्रत, रस-परित्याग आदि करके अपने को ऊँचा मानते हैं। कितने ही दुःखियों, भूखों को भोजन देने ही को धर्म मानते हैं। कितने ही भद्र परिणामी सभी धर्मों को समान जानते हुए विचार रहितता में ही लीन हैं। कितने ही परमेश्वर के नाममात्र ही को धर्म जानकर विकथा रहित निन्दा रहित रहते हैं। कितने ही अन्य जीवों का उपकार करके सभी की विनय करने को ही धर्म मानते हैं। कितने ही अपनी इंद्रियों को दण्ड देते हुए रूखा-सूखा एक बार भोजनकर मौनावलम्बी हुए अपनी आयु Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy