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गृहांग जाति के कल्पवृक्ष चोरासी खण्ड तक के सुंदर चित्र - विचित्र रत्नों से शोभायमान अनेक प्रकार के महल देते हैं । ८ ।
वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष अनेक प्रकार के इच्छानुसार पहिनने योग्य वस्त्र, शैया, आसन, बिछावन आदि देते । ९ ।
दीपांग जाति के कल्पवृक्ष अंधकार नहीं होने पर भी दीप मालिका की शोभा फैलाये रखते हैं । १० ।
भोगभूमि में स्त्री-पुरुषों के युगल के मरण समय में पुरुष को छींक व स्त्री को जिम्हाई आती है, उसी समय में युगल संतान उत्पन्न हो जाते हैं। संतान को माता-पिता नहीं दिखते, और माता-पिता संतान को नहीं देख पाते हैं, अतः उन्हें वियोग का दुःख नहीं है । मरण होने के बाद शरीर शरद ऋतु के बादलों समान विला जाता 1
युगलिया उत्पन्न होने के बाद प्रथम - सात दिन तो अपना अंगूठा चूसते हैं। उसके बाद दूसरे - सात दिन तक औंधे-सीदे पलटते रहते हैं। तीसरे - सात दिन अस्थिर गमन करने लगते हैं। चौथे - सात दिनों में स्थिर गमन करने लगते हैं। पांचवे - सप्ताह में बढ़कर परिपूर्ण युवा हो जाते हैं। छटवें सप्ताह में सभी दर्शन और विज्ञान समझने लगते हैं। सातवें सप्ताह में सभी प्रकार की चातुर्यता तथा कलायें सीख जाते हैं। इस तरह से उनंचास दिनों में परिपूर्ण होकर अनेक पृथक–विक्रिया अपृथक - विक्रिया सहित अनेक प्रकार के महल, मंदिर, वनों में विहार करते हुए क्षण-क्षण में अनेक प्रकार के नये-नये विषयों की सामग्री भोगते हुए अनेक सुखरूप, क्रीडायें, रागरंग आदि चेष्टायें करते हुए तीन पल्य की आयु पूर्ण करके मरण समय में छींक - जिम्हाई मात्र से प्राण त्याग देते हैं । सम्यग्दृष्टि हों तो सौधर्म ईशान स्वर्ग में जाते हैं; मिथ्यादृष्टि हो तो मरण करके भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं। मंद कषाय के प्रभाव से देवलोक के सिवाय अन्य गति में नहीं जाते हैं ।
सम्यग्दृष्टि हो, श्रावक के व्रत पालता हो तथा पात्रदान देता हो तो सोलहवें स्वर्ग तक महान ऋद्धिधारी देवों में ही उत्पन्न होता है ।
उत्तमपात्र, मध्यमपात्र, तथा
पात्र के भेद : आगम में पात्र तीन प्रकार के कहे हैं जघन्यपात्र। उत्तमपात्र तो महाव्रतों के धारक, अट्ठाईस मूलगुण तथा चौरासी लाख उत्तर गुणों के धारक, देह से निर्ममत्व, वीतरागी साधु हैं। मध्यमपात्र ग्यारह प्रतिमाओं के भेदरूप श्रावक सम्यग्दृष्टि ब्रत सहित होते हैं । स्त्री पर्यायमें व्रतों की सीमा तक को धारण करनेवाली, एक वस्त्र के सिवा अन्य समस्त परिग्रह रहित, पर के घर एक बार याचना रहित मौन पूर्वक भिक्षा भोजन करने वाली, आर्यिकाओं के संघ में धर्मध्यान सहित महातपश्चरण करनेवाली आर्यिका मध्यमपात्र हैं। तथा अणुव्रत व सम्यग्दर्शन सहित पुरुष व स्त्री जघन्यपात्र हैं।
इन तीन प्रकार के पात्रों में चार प्रकार का दान देना, सत्कार करना, स्थान दान देना, आदर करना, यथायोग्य स्तवन, पूजा, प्रशंसा आदि के वचन बोलना, उठकर खड़े हो जाना, उच्च मानना वह सब दान है।
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