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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१६७ के निधान, परम वीतरागी दिगम्बर यतियों को दातार व पात्र की धर्मप्रवृत्ति चलाने के लिये आहारदान देना वह वीतरागी मुनियों की वैयावृत्य है। दान के पात्र मुनि है : कैसे हैं दिगम्बर यति ? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र गुणों के निधान हैं। और कैसे हैं ? जिनके अंतरंग-बहिरंग परिग्रह नहीं है। वे मठ, मकान, उपासरा आश्रम आदि में रहते नहीं, किन्तु एकाकी या गुरुजनों के चरणों के साथ कभी वन में, कभी पर्वत की निर्जन गुफा में, कभी घोर वन में, कभी नदी के किनारे, जिनका नित्य बिहार नियम रहित (निश्चित नहीं) है; असंयमी गृहस्थों से जिनका मिलना नहीं होता है; आत्मा की विशुद्धतारूप परम वीतरागता के साधनेवाले; लौकिकजनों द्वारा की गई अपनी पूजा, प्रशंसा , स्तवन को नहीं चाहनेवाले; परलोक में देवगति के भोगों को तथा इन्द्रपना अहमिंद्रपना के ऐश्वर्य को रागरूप अंगारों के समान तप्त महान जलन उत्पन्न करनेवाले व तृष्णा को बढ़ानेवाले जानकर, परम अतींद्रिय आकुलतारहित आत्मीक सुख को सुख जानते हुए; देह आदि में ममत्व रहित होकर, आत्मा का कार्य सिद्ध करते हैं। ऐसे साधुजन की वैयावृत्य की प्राप्ति अनंतकाल में दुर्लभ है। ____ कैसे हैं दिगम्बर साधु ? यद्यपि इस शरीर से अत्यन्त निर्ममत्व हैं तो भी इस शरीर को रत्नत्रय का सहकारी कारण जानकर, रस-नीरस, कड़ा-नरम आहार लेकर, रत्नत्रय की साधना करते हुए, धर्म के लिये, कर्मों के नाश के लिये इस कृतघ्न देह की रक्षा करते हैं। वे विचार करते हैं - यदि यह शरीर असंयम में नष्ट हो जायगा तो मरकर देवादि पर्याय में असंयमी होकर उत्पन्न हो जाऊँगा। वहाँ असंख्यात काल तक असंयमी रहते हुए कर्म का बन्ध करूँगा। अतः आहार आदि का त्याग करके इस मनुष्य पर्याय के शरीर को मार दिया तो भी कर्ममय कार्माण शरीर तो नहीं मरेगा। इस देह को मार दिया तो नया अन्य शरीर धारण कर लूँगा। इसलिये इन समस्त शरीरों को उत्पन्न करने का बीज जो कार्माण शरीर है उसे मारनेनष्ट करने का यत्न करता हूँ। कषायों को जीतकर, विषयों को निग्रह करके, छियालीस दोष टालते हुए, बत्तीस अंतराय रहित, चौदह मलों का त्याग करके, उनके निमित्त से नहीं बनाये गये ऐसे शुद्ध भोजन की योग्यता मिल जाये तो आधा पेट तो भोजन से भरते हैं, चौथाई पेट जल से भरते हैं, चौथाई भाग ध्यान अध्ययन कायोत्सर्ग आदि में सुखपूर्वक प्रवर्तन करने के लिये खाली रखते हैं; निमंत्रणपूर्वक बुलाने पर जाते नहीं हैं, याचना करते नहीं हैं हाथ आदि से इशारा करते नहीं हैं। ऐसे साधुओं को आहार आदि का दान देना वही वैयावृत्य है। कैसा है दान ? अनपेक्षित उपचार अर्थात् बदले में ये भी हमारा कुछ उपकार कर देंगे ऐसे प्रत्युपकार की भावना से रहित, उपक्रिय अर्थात् प्रसन्न होकर ये हमें कोई विद्या, मन्त्र, औषधि आदि दे देंगे, मुनीश्वरों को आहार देने से मेरी नगर में दातापने के रूप में प्रसिद्धि हो जायेगी, राज्य मान्य हो जाऊँगा, मेरे घर में अटूट वैभव-धन हो जायेगा क्योंकि पहले पंचाश्चर्य हुए हैं तो मुझे भी लाभ होगा, ऐसे विकल्प या वांछा रहित होकर, केवल रत्नत्रय के धारकों की भक्ति Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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