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करहाटक नगर में पहुंचने पर वहां के राजा के द्वारा पूँछे जाने पर आपने अपना पिछला परिचय इस प्रकार दिया है।
पूर्वं पाटिलपुत्र मध्यनगरे भेरि मयाताडिता पश्चान्मालवसिन्धु टुक्क विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहु भटं विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। हे राजन्, सबसे पहिले मैंने पाटलीपुत्र नगर में शास्त्रार्थ के लिये भेरी बजवाई फिर मालव, सिन्धु, ढक्क, कांची आदिस्थानों पर जाकर भेरी ताड़ित की। अब बडे-बड़े दिग्गज विद्वानों से परिपूर्ण इस करहाटक नगर में आया हूँ। मैं तो शास्त्रार्थ की इच्छा रखता हुवा सिंह के समान घूमता फिरता हूँ।
'हिस्ट्री ऑफ कन्नडीज लिटरेचर' के लेखक मिस्टर एडवर्ड पी. राइस ने समन्तभद्र को तेजपूर्ण प्रभावशाली वादी लिखा है और बताया है कि वे सारे भारत वर्ष में जैनधर्म का प्रचार करने वाले महान प्रचारक थे। उन्होंने वाद भेरी बजने का दस्तूर का पूरा लाभ उठाया और वे बड़ी शक्ति के साथ जैन धर्म के स्याद्वाद् सिद्धान्त को पुष्ट करने में समर्थ हुये हैं।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आपने अनेकों स्थानों पर वाद भेरी बजवाई थी और किसी ने उसका विरोध नहीं किया। इस सम्बन्ध में स्वर्गीय पंडित श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं कि 'इस सारी सफलता का कारण उनके अन्तःकरण की शुद्धता, चारित्र की निर्मलता एवं अनेकान्तात्मक वाणी का ही महत्त्व था उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में तुले होते थे और इसीलिए उन पर पक्षपात का भूत सवार नहीं होता था। वे परीक्षा प्रधानी थे।”
बहुमूल्य रचनाएँ :स्वामी समन्तभद्र द्वारा विरचित निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं – १. स्तुति विद्या ( जिनशतक) २. युक्त्यनुशासन ३. स्वयम्भूस्तोत्र
४. देवागम (आप्तमीमांसा) स्तोत्र ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अर्हदगुणों की प्रतिपादक सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ रचने की उनकी बड़ी रुचि थी। उन्होंने अपने ग्रन्थ स्तुति विद्या में “ सुस्तुत्यां व्यसनं” वाक्य द्वारा अपने आपको स्तुतियां रचने का व्यसन बतलाया है। स्वयंभूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन आपके प्रमुख स्तुति ग्रन्थ हैं। इन स्तुतियों में उन्होंने जैनागम का सार एवं तत्त्व ज्ञान को कूट-कूट कर भर दिया है। देवागम स्तोत्र में सिर्फ आपने ११४ श्लोक लिखे हैं। इस स्तोत्र पर अकलंकदेव ने अष्टशती नामक आठ सौ श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी जो बहुत ही गूढ़ सूत्रों में है। इस वृत्ति को साथ लेकर श्री विद्यानन्दाचार्य ने 'अष्ट सहस्री' टीका
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