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________________ ११४] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार कोई कहता है - धर्म तो देवताओं को मानने से होता है, देवताओं को सभी कुछ देना उचित है ? किन्तु ऐसी विपरीत मान्यता करके प्राणियों की हिंसा करना उचित नहीं हैं। कितने ही कहते हैं - देवी अर्थात् कात्यायनी, चंडिका, भवानी, दुर्गा पार्वती इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं, उन्हें बकरा या भैंसा मारकर चढ़ाने से देवी प्रसन्न होती है ? ऐसे मिथ्यादृष्टियों के वाक्यों से विचलित नहीं होना। एक तो यह विचार करना चाहिये - जो देवी स्वयं ही अनेक भुजाओं में शस्त्र धारण किये टेढ़ी भौंहें करके खड़ी है; वह देवी जीवों का मांस खाना चाहती है, तो स्वयं ही जीवों को भयभीत कर मारकर क्यों नहीं खा लेती हैं ? अपने भक्तों से दीन, अनाथ जीवों को क्यों मरवाती है ? स्वयं ही सिंह, व्याघ्र आदि के समान है तो सिंह, व्याघ्र आदि को मारकर क्यों नहीं खाती है ? जो स्वयं देवी होकर भी कौवा, कुत्ता, भील, चाण्डाल के समान मांस भक्षण में रत है, भूख से दुःखी है, उसका कैसा देवीपना ? जो स्वयं ही दुःखी है, कुछ चाहता हैं, आसक्त है - वह भक्तों को कैसे सुखी करेगा ? महादुर्गंधित तिर्यंचों के दुर्गंधमय घृणा उत्पन्न कराने वाले मांस के इच्छुक महापापियों के देवपना नहीं होता है। पापी पुरुषों ने झूठे शास्त्र बनाकर अपने मांस भक्षण के लिये तथा मूढ़ लोगों को देवी का प्रसाद के संकल्प से मांस भक्षण में प्रवृत्ति कराकर अपनी इंद्रियों को पुष्ट करने के लिये जगत के जीवों को नरक में डुबो दिया है। जिनेन्द्र के परमागम में तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी-चारों के प्रकार के देवों के कवलाहार नहीं कहा है, मानसिक आहार ही कहा है। किसी भी समय में भूख लगने पर उसी समय उनके कण्ठ में ही अमृत झर जाता है, उससे भूख मिट जाती है। उनका दिव्य वैक्रियिक शरीर सात धातु-उपधातु रहित महादिव्यरूप सुगंधमय शरीर होता है। देवों को मांस भक्षण करने वाला कहने महाविपरीत बुद्धि है। यदि देवता मांसभक्षी हैं तो वह कौवा, कुत्ता, गीध, स्यार से भी नीच देव हुआ; इसलिये देवता के लिये हिंसा करना उचित नहीं है। कोई मांसभक्षी गुरु के लिये मांस का दान नहीं करना चाहिये। जो पापी मांसादि अभक्ष्य का भक्षण करता है, मदिरा पीता है, वह पापी कैसा गुरु ? वह तो मांसादि भक्षण कराकर नरक पहुंचाने का गुरु है। उसे छूने से, देखने से घोर पाप बंध होता है। कोई कहता है - अन्नादि के खाने में तो बहुत जीवों का घात होता है, इसलिये एक जीव को मारकर खा लेना ठीक है? उसे उत्तर देते हैं - ऐसा विचार करके बड़े प्राणी को मारकर खा लेना उचित नहीं है। एकेन्द्रिय प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु सभी तीन लोक में भरे हुए, सभी विकलत्रय, सभी देव , मनुष्य, तिर्यंच, नारकी - इन सब को एकत्र करके गिनो तो समस्त असंख्यात होते हैं। इन सब से अनन्तगुणे जीव भगवान सर्वज्ञदेव ने मनुष्य ब तिर्यंच के मांस की एक कणी में बादर निगोदिया Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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