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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दूसरा अधिकार ] [३५ वहाँ एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवों को तो अनक्षरात्मक ही श्रुतज्ञान है और संज्ञी पंचेन्द्रियोंके दोनों है। यह श्रुतज्ञान है सो अनेक प्रकार से पराधीन ऐसे मतिज्ञान के भी आधीन है तथा अन्य अनेक कारणोंके आधीन है; इसलिये महा पराधीन जानना। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञानकी प्रवृत्ति अब, अपनी मर्यादा के अनुसार क्षेत्र-काल का प्रमाण लेकर रूपी पदार्थों को स्पष्टरूप से जिसके द्वारा जाना जाय वह अवधिज्ञान है। वह देव, नारकियों में तो सबको पाया जाता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्यों के भी किसी को पाया जाता है। असंज्ञी पर्यन्त जीवों के यह होता ही नहीं है। सो यह भी शरीरादिक पुद्गलों के आधीन है। अवधि के तीन भेद हैं - १. देशावधि २. परमावधि ३. सर्वावधि। इनमें थोड़े क्षेत्र-काल की मर्यादा लेकर किंचित्मात्र रूपी पदार्थों को जानने वाला देशावधि है, सो ही किसी जीव के होता है। तथा परमावधि, सर्वावधि और मनःपर्यय - ये ज्ञान मोक्षमार्ग में प्रगट होते हैं; केवलज्ञान मोक्षरूप है इसलिये इस अनादि संसार-अवस्था में इनका सद्भाव ही नहीं है। इस प्रकार तो ज्ञानी की प्रवृत्ति पायी जाती है। चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवलदर्शनकी प्रवृत्ति अब, इन्द्रिय तथा मनको स्पर्शादिक विषयों का सम्बन्ध होने से प्रथम काल में मतिज्ञान से पूर्व जो सत्तामात्र अवलोकनरूप प्रतिभास होता है उसका नाम चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन है। वहाँ नेत्र इन्द्रिय द्वारा दर्शन होने का नाम तो चक्षुदर्शन है; वह तो चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों को ही होता है। तथा स्पर्शन, रसना घ्राण, श्रोत्र - इन चार इन्द्रियों और मन द्वारा जो दर्शन होता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है; वह यथायोग्य एकेन्द्रियादि जीवोंको होता है। अब, अवधिके विषयोंका सम्बन्ध होने पर अवधिज्ञान के पूर्व जो सत्तामात्र अवलोकनरूप प्रतिभास होता है उसका नाम अवधिदर्शन है। यह जिनके अवधिज्ञान सम्भव है उन्हीं को होता है। यह चक्षु , अचक्षु , अवधिदर्शन है सो मतिज्ञान व अवधिज्ञानवत् पराधीन जानना। तथा केवलदर्शन मोक्षस्वरूप है उसका यहाँ सद्भाव ही नहीं है। इस प्रकार दर्शन का सद्भाव पाया जाता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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