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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ मोक्षमार्गप्रकाशक ऐसा ही आत्मानुशासन में कहा है : प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ।। ५ ।। अर्थ :- जो बुद्धिमान हो, जिसने समस्त शास्त्रों का रहस्य प्राप्त किया हो, लोक मर्यादा जिसके प्रगट हुई हो, आशा जिसके अस्त हो गई हो, कांतिमान हो, उपशमी हो, प्रश्न करने से पहले ही जिसने उत्तर देखा हो, बाहुल्यतासे प्रश्नों को सहनेवाला हो, प्रभु हो, परकी तथा पर के द्वारा अपनी निन्दारहितपने से परके मन को हरने वाला हो, गुणनिधान हो, स्पष्ट मिष्ट जिसके वचन हों - ऐसा सभा का नायक धर्मकथा कहे । पुनश्च , वक्ता का विशेष लक्षण ऐसा है कि यदि उसके व्याकरण-न्यायादिक तथा बड़े-बड़े जैन शास्त्रों का विशेष ज्ञान हो तो विशेष रूप से उसको वक्तापना शोभित हो । पुनश्च , ऐसा भी हो; परन्तु अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरूप का अनुभव जिसको न हुआ हो वह जिन धर्मका मर्म नहीं जानता, पद्धतिहीसे वक्ता होता है । अध्यात्मरसमय सच्चे जिन धर्मका स्वरूप उसके द्वारा कैसे प्रगट किया जाये ? इसलिये आत्मज्ञानी हो तो सच्चा वक्तापना होता है, क्योंकि प्रवचनसार में ऐसा कहा है कि - आगमज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान, संयमभाव – यह तीनों आत्मज्ञान से शून्य कार्यकारी नहीं हैं । पुनश्च , दोहापाहुड़ में ऐसा कहा है : पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वि तुस कंडिया। पय अत्थं तुट्ठोसि परमत्थ ण जाणइ मूढोसि ।। अर्थ :- हे पांडे ! हे पांडे !! हे पांडे !!! तू कण को छोड़ कर तुस (भूसी) ही कूट रहा है; तू अर्थ और शब्द में सन्तुष्ट है, परमार्थ नहीं जानता; इसलिये मूर्ख ही है - ऐसा कहा है । __ तथा चौदह विद्याओं में भी पहले अध्यात्मविद्या प्रधान कही है । इसलिये जो अध्यात्मरसका रसिया वक्ता है, उसे जिन धर्मके रहस्यका वक्ता जानना । पुनश्च , जो बुद्धि ऋद्धि के धारक हैं तथा अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानके धनी वक्ता हैं; उन्हें महान वक्ता जानना । - ऐसे वक्ताओं के विशेष गुण जानना । सो इन विशेष गुणोंके धारी वक्ता का संयोग मिले तो बहुत भला है ही, और न मिले तो श्रद्धानादिक गुणों के धारी वक्ताओं के मुख से ही शास्त्र सुनना । इस प्रकार के Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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