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[मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्थ यह है कि - जो अक्षरोंका सम्प्रदाय है सो स्वयंसिद्ध है, तथा उन अक्षरोंसे उत्पन्न सत्यार्थके प्रकाशक पद उनके समूहका नाम श्रुत है, सो भी अनादि-निधन है। जैसे - 'जीव' ऐसा अनादि-निधन पद है सो जीवको बतलाने वाला है। इस प्रकार अपने-अपने सत्य अर्थके प्रकाशक अनेक पद उनका जो समुदाय सो श्रुत जानना। पुनश्च , जिसप्रकार मोती तो स्वयंसिद्ध है, उनमेंसे कोई थोड़े मोतियोंको, कोई बहुत मोतियोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूंथकर गहना बनाते हैं; उसी प्रकार पद तो स्वयंसिद्ध हैं, उनमें से कोई थोड़े पदोंको, कोई बहुत पदोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूंथकर ग्रंथ बनाते हैं। यहाँ मैं भी उन सत्यार्थपदोंको मेरी बुद्धि अनुसार गॅथकर ग्रंथ बनाता हूँ; मेरी मतिसे कल्पित झूठे अर्थके सूचक पद इसमें नहीं गूंथता हूँ। इसलिये यह jथ प्रमाण जानना।
प्रश्न :- उन पदों की परम्परा इस ग्रंथपर्यन्त किस प्रकार प्रवर्तमान है ?
समाधान :- अनादिसे तीर्थंकर केवली होते आये हैं, उनको सर्वका ज्ञान होता है; इसलिये उन पदोंका तथा उनके अर्थोंका भी ज्ञान होता है। पुनश्च , उन तीर्थंकर केवलियों का दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा उपदेश होता है जिससे अन्य जीवोंको पदोंका एवं अर्थों का ज्ञान होता है; उसके अनुसार गणधरदेव अंगप्रकीर्णरूप ग्रंथ गूंथते हैं तथा उनके अनुसार अन्यअन्य आचार्यादिक नानाप्रकार ग्रंथादिककी रचना करते हैं। उनका कोई अभ्यास करते हैं, कोई उनको कहते हैं, कोई सुनते हैं। इस प्रकार परम्परामार्ग चला आता है।
अब इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान अवसर्पिणी काल है। उसमें चौबीस तीर्थंकर हुए, जिनमें श्री वर्धमान नामक अंतिम तीर्थंकरदेव हुए। उन्होंने केवलज्ञान विराजमान होकर जीवोंको दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश दिया। उसको सुननेका निमित्त पाकर गौतम नामक गणधरने अगम्य अर्थोंको भी जानकर धर्मानुरागवश अंगप्रकीर्णकोंकी रचना की। फिर वर्धमानस्वामी तो मुक्त हुए। वहाँ पीछे इस पंचमकालमें तीन केवली हुए - (१) गौतम, (२) सुधर्माचार्य और (३) जम्बूस्वामी । तत्पश्चात् कालदोषसे केवलज्ञानी होने का तो अभाव हुआ, परन्तु कुछ काल तक द्वादशांगके पाठी श्रुतकेवली रहे और फिर उनका भी अभाव हुआ। फिर कुछ काल तक थोड़े अंगों के पाठी रहे फिर पीछे उनका भी अभाव हुआ। तब आचार्यादिकों द्वारा उनके अनुसार बनाए गये ग्रंथ तथा अनुसारी ग्रंथोंके अनुसार बनाए गये ग्रंथ उनकी ही प्रवृत्ति रही। उनमें भी कालदोषसे दुष्टों द्वारा कितने ही ग्रंथोंकी व्युच्छित्ति हुई तथा महान ग्रंथोंका अभ्यासादि न होनेसे व्युच्छित्ति हुई। तथा कितने ही महान ग्रंथ पाये जाते हैं, उनका बुद्धिकी
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