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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वे अरहंतादिक ही परम मंगल हैं। उनमें भक्तिभाव होनेसे परम मंगल होता है। 'मंग' अर्थात् सुख, उसे 'लाति' अर्थात् देता है; अथवा 'मं' अर्थात् पाप उसे, ‘गालयति’ अर्थात् गाले, दूर करे उसका नाम मंगल है । इस प्रकार उनके द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से दोनों कार्योंकी सिद्धि होती है, इसलिये उनके परम मंगलपना संभव है ।
मंगलाचरण करने का कारण
यहाँ कोई पूछे कि प्रथम ग्रंथके आदिमें मंगल ही किया सो क्या कारण है ? उसका उत्तर :- सुख से ग्रंथकी समाप्ति हो, पापके कारण कोई विघ्न न हो, इसलिये यहाँ प्रथम मंगल किया है।
यहाँ तर्क जो अन्यमती इसप्रकार मंगल नहीं करते हैं उनके भी ग्रन्थकी समाप्ति तथा विध्नका न होना देखते हैं वहाँ क्या हेतु है ? उसका समाधान :- अन्यमती जो ग्रन्थ करते हैं उनमें मोहके तीव्र उदयसे मिथ्यात्व - कषायभावोंका पोषण करनेवाले विपरीत अर्थों को धरते (रखते) हैं, इसलिये उनकी निर्विध्न समाप्ति तो ऐसे मंगल किये बिना ही हो । यदि ऐसे मंगलोंसे मोह मंद हो जाये तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने ? तथा हम भी ग्रंथ करते हैं उसमें मोहकी मंदताके कारण वीतराग तत्त्वज्ञानका पोषण करनेवाले अर्थोंको धरेंगे (रखेंगे); उसकी निर्विध्न समाप्ति ऐसे मंगल करनेसे ही हो । यदि ऐसे मंगल न करें तो मोह की तीव्रता रहे, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने ?
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पुनश्च वह कहता है कि ऐसे तो मानेंगे; परन्तु कोई ऐसा मंगल नहीं करता उसके भी सुख दिखाई देता है, पापका उदय नहीं दिखाई देता और कोई ऐसा मंगल करता है उसके भी सुख नहीं दिखाई देता, पापका उदय दिखाई देता है पूर्वोक्त मंगलपना कैसे बने ? उससे कहते हैं :
इसलिये
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जीवोंके संक्लेश-विशुद्ध परिणाम अनेक जातिके हैं। उनके द्वारा अनेक कालोंमें पहले बँधे हुए कर्म एक काल में उदय आते हैं। इसलिये जिसप्रकार जिसके पूर्वमें बहुत धनका संचय हो उसके बिना कमाए भी धन दिखायी देता है और ऋण दिखायी नहीं देता, तथा जिसके पूर्वमें ऋण बहुतहो उसके धन कमाने पर भी ऋण दिखायी देता है धन दिखायी नहीं देता; परन्तु विचार करनेसे कमाना तो धनहीका कारण है, ऋणका कारण नहीं है। उसी प्रकार जिसके पूर्व में बहुत पुण्य का बंध हुआ हो उसके यहाँ ऐसा मंगल किये बिना भी सुख दिखायी देता है, पापका उदय दिखायी नहीं देता। और जिसके पूर्वमें बहुत पापबंध हुआ हो उसके यहाँ ऐसा मंगल करने पर भी सुख दिखायी नहीं देता, पाप का उदय दिखायी देता है; परन्तु विचार करनेसे ऐसा मंगल तो सुखहीका कारण है, पाप उदयका कारण नहीं है। इस प्रकार पूर्वोक्त मंगलका मंगलपना बनता है ।
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