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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ६] [ मोक्षमार्गप्रकाशक हितकी सिद्धि जैसे तीर्थंकर - केवली दर्शनादिकसे होती है; वैसे ही होती है; उन जिनबिम्बों को हमारा नमस्कार हो । पुनश्च, केवलीकी दिव्यध्वनि द्वारा दिये गये उपदेशके अनुसार गणधर द्वारा रचे गये अंग-प्रकीर्णक, उनके अनुसार अन्य आचार्यादिकों द्वारा रचे गये ग्रंथादिक ऐसे ये सब जिनवचन हैं; स्याद्वाद चिह्न द्वारा पहिचानने योग्य हैं, न्यायमार्गसे अविरुद्ध हैं, इसलिये प्रामाणिक है; जीवको तत्त्वज्ञानका कारण हैं, इसलिये उपकारी हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो । पुनश्च चैत्यालय, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य; तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र; कल्याणककाल आदि काल तथा रत्नत्रय आदि भाव; जो मेरे द्वारा नमस्कार करने योग्य हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ तथा जो किंचित् विनय करने योग्य हैं उनकी यथायोग्य विनय करता हूँ। हैं : - इसप्रकार अपने इष्टोंका सन्मान करके मंगल किया है। — अब वे अरहंतादिक इष्ट कैसे हैं सो विचार करते हैं : जिसके द्वारा सुख उत्पन्न हो तथा दुःखका विनाश हो उस कार्यका नाम प्रयोजन है; और जिसके द्वारा उस प्रयोजन की सिद्धि हो वही अपना इष्ट है । सो हमारे इस अवसरमें वीतराग - विशेषज्ञानका होना वही प्रयोजन है, क्योंकि उसके द्वारा निराकुल सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है और सर्व आकुलतारूप दुःखका नाश होता है। अरहंतादिकसे प्रयोजनसिद्धि पुनश्च, इस प्रयोजनकी सिद्धि अरहंतादिक द्वारा होती है। किस प्रकार? सो विचारते आत्माके परिणाम तीन प्रकारके हैं संक्लेश, विशुद्ध और शुद्ध । वहाँ तीव्र कषायरूप संक्लेश है, मंद कषायरूप विशुद्ध हैं, तथा कषायरहित शुद्ध हैं। वहाँ वीतरागविशेषज्ञानरूप अपने स्वभावके घातक जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्म हैं; उनका संक्लेश परिणामों द्वारा तो तीव्र बन्ध होता है, और विशुद्ध परिणामों द्वारा मंद-बन्ध होता है, तथा विशुद्ध परिणाम प्रबल हों तो पूर्वकालमें जो तीव्र बंध हुआ था उसको भी मंद करता है। शुद्ध परिणामों द्वारा बंध नही होता, केवल उनकी निर्जरा ही होती है। अरहंतादिके प्रति स्तवनादिरूप जो भाव होते हैं, वे कषायोंकी मंदता सहित ही होते हैं, इसलिये वे विशुद्ध परिणाम हैं। पुनश्च, समस्त कषाय मिटानेका साधन हैं, इसलिये शुद्ध Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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