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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३५४] [परमार्थवचनिका अथवा चुप हो रहता है बोलता नहीं गहलरूपसे। तीसरा विभ्रमवाला पुरुष भी बोला की यह तो प्रत्यक्षप्रमाण चाँदी है , इसे सीप कौन कहेगा? मेरी दृष्टिमें तो चाँदी सुझती है इसलिये सर्वथा प्रकार यह चाँदी है; - इसप्रकार तीनों पुरुषोने तो उस सीप का स्वरूप जाना नहीं इसलिये तीनों मिथ्यात्वादी हैं। अब चौथा पुरुष बोला यह तो प्रत्यक्षप्रमाण सीपका टुकड़ा है, इसमें क्या धोखा ? सीप सीप सीप, निरधार सीप, इसको जो कोई और वस्तु कहे वह प्रत्यक्षप्रमाण भ्रामक अथवा अंध। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको स्व-पर स्वरूप में न संशय, न विमोह, न विभ्रम, यथार्थ दृष्टि है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अंतर्दृष्टिसे मोक्षपद्धति को साधना जानता है। बाह्यभाव बाह्यनिमित्तरूप मानता है, वह निमित्त नानारूप है, एकरूप नहीं है। अंतर्दृष्टिके प्रमाणमें मोक्षमार्गसाधे और सम्यग्ज्ञान स्वरूपाचरणकी कणिका जागने पर मोक्षमार्ग सच्चा। मोक्षमार्ग को साधना यह व्यवहार, शुद्धद्रव्य अक्रियारूप सो निश्चय। इसप्रकार निश्चय-व्यवहार का स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है, मूढ़ जीव न जानता है, न मानता है। मूढ़ जीव बन्धपद्धति को साध कर मोक्ष कहता है, वह बात ज्ञाता नहीं मानते। क्यों ? इसलिये कि बन्ध के साधने से बन्ध सधता है, मोक्ष नहीं सधता। ज्ञाता जब कदाचित् बन्ध पद्धति का विचार करता है तब जानता है कि इस पद्धति से मेरा द्रव्य अनादिका बन्धरूप चला आया है; अब इस पद्धति से मोह तोड़कर प्रवर्त; इस पद्धति का राग पूर्व की भाँति हे नर! किसलिये करते हो? क्षणमात्र भी बन्धपद्धति में मग्न नहीं होता वह ज्ञाता अपने स्वरूप को विचारता है, अनुभव करता है, ध्याता है, गाता है, श्रवण करता है, नवधाभक्ति, तप, क्रिया, अपने शुद्धस्वरूपके सन्मुख होकर करता है। यह ज्ञाता का आचार इसी का नाम मिश्र व्यवहार । अब हेय-ज्ञेय-उपादेय ज्ञाताकी चाल उसका विचार लिखते हैं : हेय - त्यागरूप तो अपने द्रव्य की अशुद्धता; ज्ञेय - विचाररूप अन्य षद्रव्योंका स्वरूप; उपादेय-आचरणरूप अपने द्रव्यकी शुद्धता; उसका विवरण - गुणस्थान प्रमाण हेय-ज्ञेय-उपादेयकी शक्ति ज्ञाता की होती है। ज्यों-ज्यों ज्ञाता की हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप शक्ति वर्धमान हो त्यों-त्यों गुणस्थानकी बढ़वारी कही है। गुणस्थानप्रमाण ज्ञान, गुणस्थानप्रमाण क्रिया। उसमें विशेष इतना कि एक गुणस्थान वर्ती अनेकजीव हों तो अनेकरूप का ज्ञान कहा जाता है, अनेकरूप की क्रिया कही जाती है। भिन्न-भिन्न सत्ता के प्रमाण से एकता नहीं मिलती। एक-एक जीवद्रव्यमें अन्य-अन्यरूप औदयिकभाव होते है, उन औदयिक भावानुसार ज्ञानकी अन्य-अन्यता जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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