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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३४८] [ रहस्यपूर्ण चिट्ठी (चन्द्रमा), जलविन्दु, अग्निकणिका - यह तो एकदेश हैं, और पूर्णमासीका चन्द्र, महासागर तथा अग्निकुण्ड - यह सर्वदेश हैं। उसी प्रकार चौथे गुणस्थानमें आत्मा के ज्ञानादिगुण एकदेश प्रगट हुए हैं, तेरहवें गुणस्थानमें आत्मा के ज्ञानादिक गुण सवर्था प्रगट होते हैं; और जैसे दृष्टांतोंकी एक जाति है वैसे ही जितने गुण अव्रत-सम्यग्दृष्टि के प्रगट हुए हैं उनकी और तेरहवें गुणस्थानमें जो गुण प्रगट होते हैं उनकी एक जाति है। वहाँ तुमने प्रश्न लिखा कि एक जाति है तो जिसप्रकार केवली सर्वज्ञेयोंको प्रत्यक्ष जानते हैं उसी प्रकार चौथे गुणस्थानवाला भी आत्माको प्रत्यक्ष जानता होगा ? उत्तर :- भाईजी, प्रत्यक्षताकी अपेक्षा एक जाति नहीं है, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा एक जाति है। चौथे गुणस्थान वालेको मति-श्रुतरूप सम्यग्ज्ञान है और तेरहवें गुणस्थान वालेको केवलरूप सम्यग्ज्ञान है। तथा एकदेश सर्वदेश का अनतर तो इतना ही है कि मतिश्रुतज्ञानवाला अमूर्तिक वस्तुको अप्रत्यक्ष और मूर्तिक वस्तु को भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष , किंचित् अनुक्रमसे जानता है तथा सर्वथा सर्व वस्तुको केवलज्ञान युगपत् जानता है; वह परोक्ष जानता है, यह प्रत्यक्ष जानता है इतना ही विशेष है। और सर्वप्रकार एक ही जाति कहें तो जिसप्रकार केवली युगपत् प्रत्यक्ष अप्रयोजनरूप ज्ञेयको निर्विकल्परूप जानते हैं उसीप्रकार यह भी जाने - ऐसा तो है नहीं; इसलिये प्रत्यक्ष-परोक्षका विशेष जानना। उक्त च अष्ट सहस्री मध्ये : स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् । (अष्टसहस्री, दशमः परिच्छेदः १०५) अर्थ :- स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान - यह दोनों सर्व तत्त्वोंका प्रकाशन करनेवाले हैं। विशेष इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, श्रुतज्ञान परोक्ष है। परन्तु वस्तु है सो और नहीं है। तथा तुमने निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप और व्यवहार सम्यक्त्वका स्वरूप लिखा है सो सत्य है. परन्त इतना जानना कि सम्यक्त्वीके व्यवहार सम्यक्त्वमें व अन्यकालमें अन्तरङ्ग निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है, सदैव गमनरूप रहता है। तथा तुमने लिखा – कोई साधर्मी कहता है कि आत्माको प्रत्यक्ष जाने तो कर्मवर्गणाको प्रत्यक्ष क्यों न जाने ? सो कहते हैं कि आत्मा को तो प्रत्यक्ष केवली ही जानते है, कर्मवर्गणाको अवधिज्ञानी भी जानते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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