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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३३४] [ मोक्षमार्गप्रकाशक सो यह द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सप्तमादि ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है। गिरते हुए किसीके छठे, पाँचवें और चौथे भी रहता है। - ऐसा जानना। इस प्रकार उपशमसम्यक्त्व दो प्रकार का है। सो यह सम्यक्त्व वर्तमानकाल में क्षायिकवत् निर्मल है; इसके प्रतिपक्षी कर्मकी सत्ता पायी जाती, इसलिये अन्तर्मुहूर्त कालमात्र यह सम्यक्त्व रहता है। पश्चात् दर्शनमोहका उदय आता है - ऐसा जानना। इसप्रकार उपशमसम्यक्त्व का स्वरूप कहा। तथा जहाँ दर्शनमोह की तीन प्रकृतियोंमें सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो, अन्य दो का उदय न हो, वहाँ क्षयोपशमसम्यक्त्व होता है। उपशमसम्यक्त्वका काल पूर्ण होनेपर यह सम्यक्त्व होता है व सादिमिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वगुणस्थानसे व मिश्रगुणस्थानसे भी इसकी प्राप्ति होती है। क्षयोपशम क्या ? सो कहते हैं :- दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंमें मिथ्यात्व का अनुभाग है, उसके अनन्तवें भाग मिश्रमोहनीयका है, उसके अनन्तवेंभाग सम्यक्त्वमोहनीयका है। इनमें सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति देशघाती है; इसका उदय होने पर भी सम्यक्त्वका घात नहीं होता। किंचित् मलिनता करे, मूलघात न कर सके, उसीका नाम देशघाती है। सो जहाँ मिथ्यात्व व मिश्रमिथ्यात्व के वर्तमान काल में उदय आने योग्य निषेकोंका उदय हुए बिना ही निर्जरा होती है वह तो क्षय जानना, और आगामीकाल में उदय आने योग्य निषेकोंकि सत्ता पायी जाये वही उपशम है, और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय पाया जाता है. ऐसी दशा जहाँ हो सो क्षयोपशम है; इसलिये समलतत्त्वार्थश्रद्धान हो वह क्षयोपशमसम्यक्त्व है। यहाँ जो मल लगता है, उसका तारतम्यस्वरूप तो केवली जानते हैं; उदाहरण बतलानेके अर्थ चल मलिन अगाढपना कहा है। वहाँ व्यवहारमात्र देवादिककी प्र परन्तु अरहन्तदेवादिमें - यह मेरा है, यह अन्य का है, इत्यादि भाव सो चलपना है। शंकादि मल लगे सो मलिनपना है। यह शान्तिनाथ शांतिकर्ता है, इत्यादि भाव सो अगाढ़पना है। ऐसे उदाहरण व्यवहार मात्र बतलाये, परन्तु नियमरूप नहीं है। क्षयोपशमसम्यक्त्व में जो नियमरूप कोई मल लगता है सो केवली जानते हैं। इतना जानना कि इसके तत्त्वार्थश्रद्धान में किसी प्रकार से समलपना होता है, इसलिये यह सम्यक्त्व निर्मल नहीं है। इस क्षयोपशमसम्यक्त्वका एक ही प्रकार है, इसमें कुछ भेद नहीं है। इतना विशेष है कि क्षायिकसम्यक्त्वके सन्मुख होनेपर अन्तर्मुहूर्त्तकालमात्र जहाँ मिथ्यात्वकी प्रकृतिका क्षय करता है, वहाँ दो ही प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है। पश्चात् Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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