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नौवाँ अधिकार]
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फिर आपमें अपनत्व मनानेके अर्थ स्वरूपका विचार करता रहे; क्योंकि इस अभ्याससे आत्मानुभवकी प्राप्ति होती है।
इसप्रकार अनुक्रमसे इनको अंगीकार करके फिर इन्हीं में कभी देवादिकके विचारमें, कभी तत्त्वविचार में, कभी आपापरके विचार में, कभी आत्म विचारमें उपयोग लगाये। ऐसे अभ्याससे दर्शनमोह मन्द होता जाये तब कदाचित् सच्चे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। परन्तु ऐसा नियम तो है नहीं; किसी जीव के कोई प्रबल विपरीत कारण बीचमें हो जाये तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं भी होती; परन्तु मुख्यरूप से बहुत जीवोंके तो इस अनुक्रमसे कार्यसिद्धि होती है; इसलिये इनको इसप्रकार अंगीकार करना। जैसे - पुत्रका अर्थी विवाहादि कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत पुरुषोंके तो पुत्र की प्राप्ति होती ही है; किसी को न हो तो न हो। इसे तो उपाय करना। उसी प्रकार सम्यक्त्वका अर्थी इन कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत जीवोंके तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती ही है; किसी को न हो तो नहीं भी हो। परन्तु इसे तो अपने से बने वह उपाय करना।
इसप्रकार सम्यक्त्वका लक्षण निर्देश किया।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यक्त्वके लक्षण तो अनेक प्रकार कहे , उनमें तुमने तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण को मुख्य किया सो कारण क्या ?
समाधान :- तुच्छबुद्धियोंको अन्य लक्षणमें प्रयोजन प्रगट भासित नहीं होता व भ्रम उत्पन्न होता है। और इस तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें प्रगट प्रयोजन भासित होता है, कुछ भ्रम उत्पन्न नहीं होता, इसलिये इस लक्षणको मुख्य किया है। वही बतलाते हैं :
देव-गुरु-धर्मके श्रद्धान में तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि अरहन्तदेवादिकको मानना, औरको नहीं मानना, इतना ही सम्यक्त्व है। वहाँ जीव-अजीवका व बन्ध-मोक्षके कारण-कार्यका स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न हो; व जीवादिकका श्रद्धान हुए बिना इसी श्रद्धानमें सन्तुष्ट होकर अपने को सम्यक्त्वी माने; एक कुदेवादिकसे द्वेष तो रखे, अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे; ऐसा भ्रम उत्पन्न हो।
तथा आपापरके श्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि आपापरका ही जानना कार्यकारी है, इसी से सम्यक्त्व होता है। वहाँ आस्रवादिकका स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न हो; व अस्रवादिकका श्रद्धान हुए बिना इतना ही जानने में सन्तुष्ट होकर अपने को सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका उद्यम न करें; ऐसा भ्रम उत्पन्न हो।
तथा आत्मश्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि आत्माही का विचार कार्यकारी है, इसी से सम्यक्त्व होता है। वहाँ जीव-अजीवादिकका विशेष व आस्रवादिकका स्वरूप
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