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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार ] [ २९९ किंचित् दोषरूप होना बुरा नहीं है, इसलिये तुझसे तो वह भला है। तथा यहाँ यह कहा है कि “ तू दोषमय ही क्यों नहीं हुआ ?” सो यह तो तर्क किया है, कहीं सर्व दोषमय होने के अर्थ यह उपदेश नहीं है । तथा यदि गुणवान की किंचित् दोष होने पर भी निन्दा है तो दोषरहित तो सिद्ध है; निचली दशामें तो कोई गुण, कोई दोष होता ही है 1 यहाँ कोई कहे ऐसा है तो “ मुनिलिंग धारण करके किंचित् परिग्रह रखे वह भी निगोद जाता है ” – ऐसा षट्पाहुड' में कैसे कहा है ? — उत्तर : ऊँची पदवी धारण करके उस पदमें सम्भवित नहीं है ऐसे नीचे कार्य करे तो प्रतिज्ञाभंगादि होने से महादोष लगता है, और नीची पदवी में वहाँ सम्भवित ऐसे गुणदोष हों तो हों, वहाँ उसका दोष ग्रहण करना योग्य नहीं है ऐसा जानना । तथा उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला कहा है 'आज्ञानुसार उपदेश देने वालेका क्रोध भी क्षमा का भंडार है ; परन्तु यह उपदेश वक्ताको ग्रहण करने योग्य नहीं है। इन उपदेश से वक्ता क्रोध करता रहेतो उसका बुरा ही होगा। यह उपदेश श्रोताओंके ग्रहण करने योग्य है। कदाचित् वक्ता क्रोध करके भी सच्चा उपदेश दे तो श्रोता गुण ही मानेंगे। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। तथा जैसे किसीको अति शीतांग रोग हो उसके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषधियाँ कही हैं; उन औषधियोंको जिसके दाह हो व तुच्छ शीत हो वह ग्रहण करे तो दुःख ही पायेगा। उसी प्रकार किसीके किसी कार्य की अति मुख्यता हो उसके अर्थ उसके निषेधका अति खींचकर उपदेश दिया हो; उसे जिसके उस कार्य की मुख्यता न हो व थोड़ी मुख्यता हो वह ग्रहण करे तो बुरा ही होगा । यहाँ उदाहरण जैसे किसी के शास्त्राभ्यास की अति मुख्यता है और आत्मानुभवका उद्यम ही नहीं है, उसके अर्थ बहुत शास्त्राभ्यासका निषेध किया है। तथा जिसके शास्त्राभ्यास नहीं है व थोड़ा शास्त्राभ्यास है, वह जीव उस उपदेशसे शास्त्राभ्यास छोड़ दे और आत्मानुभवमें उपयोग न रहे तब उसका तो बुरा ही होगा । — १ जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु । जई लेई अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ।। १८ ।। [ सूत्रपाहुड़ ] २ रोसोवि खमाकोसो सुत्तं भासंत जस्सणधणस्य । उस्सुतेण खमाविय दोस महामोह आवासो ।। १४ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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