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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८४] [मोक्षमार्गप्रकाशक बड़ा जानकर उसका सत्कार करता है; उसी प्रकार आप सम्यक्त्व गुण सहित है, परन्तु जो व्यवहार धर्ममें प्रधान हो उसे व्यवहारधर्मकी अपेक्षा गुणाधिक मान कर उसकी भक्ति करता है, ऐसा जानना। इसी प्रकार जो जीव बहुत उपवासादि करे उसे तपस्वी कहते हैं; यद्यपि कोई ध्यान-अध्ययनादि विशेष करता है वह उत्कृष्ट तपस्वी है तथापि यहाँ चरणानुयोगमें बाह्यतपकी ही प्रधानता है, इसलिये उसी को तपस्वी कहते हैं। इसप्रकार अन्य नामादिक जानना। ऐसे ही अन्य प्रकार सहित चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान जानना। द्रव्यानुयोगके व्याख्यानका विधान अब, द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान कहते हैं : जीवोंके जीवादि द्रव्योंका यथार्थ श्रद्धान जिसप्रकार हो उस प्रकार विशेष, युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादिकका यहाँ निरूपण करते हैं, क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान करानेका प्रयोजन है। वहाँ यद्यपि जीवादि वस्तु अभेद हैं तथापि उनमें भेदकल्पना द्वारा व्यवहारसे द्रव्य-गुणपर्यायादिकके भेदोंको निरूपण करते हैं। तथा प्रतीति कराने के अर्थ अनेक युक्तियों द्वारा उपदेश देते हैं अथवा प्रमाण-नय द्वारा उपदेश देते हैं वह भी युक्ति है, तथा वस्तुके अनुमान प्रत्यभिज्ञानादिक करनेको हेतु-दृष्टान्तादिक देते हैं। इस प्रकार यहाँ वस्तु की प्रतीति करानेको उपदेश देते हैं। तथा यहाँ मोक्षमार्गका श्रद्धान करानेके अर्थ जीवादि तत्त्वोंका विशेष, युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादि द्वारा निरूपण करते हैं। वहाँ स्वपर भेदविज्ञानादिक जिस प्रकार हों उस प्रकार जीव-अजीवका निर्णय करते हैं; तथा वीतरागभाव जिस प्रकार हो उस प्रकार आस्रवादिकका स्वरूप बतलाते हैं; और वहाँ मुख्यरूप से ज्ञान-वैराग्य के कारण जो आत्मानुभवनादिक उनकी महिमा गाते हैं। तथा द्रव्यानुयोगमें निश्चय अध्यात्म-उपदेशकी प्रधानता हो, वहाँ व्यवहार धर्मका भी निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभव का उपाय नहीं करते और बाह्य क्रियाकाण्डमें मग्न हैं, उनको वहाँसे उदास करके आत्मानुभवनादिमें लगानेको व्रत-शील-संयमादिकका हीनपना प्रगट करते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान लेना कि इनको छोड़कर पापमें लगना; क्योंकि उस उपदेशका प्रयोजन अशुभमें लगानेका नहीं है शुद्धोपयोगमें लगानेको शुभोपयोगका निषेध करते हैं। यहाँ कोई कहे कि अध्यात्मशास्त्रमें पुण्य-पाप समान कहे हैं, इसलिये शुद्धोपयोग हो तो भला ही है, न हो तो पुण्यमें लगो या पापमें लगो ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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