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[मोक्षमार्गप्रकाशक
वहाँ नाम सीख लेना और लक्षण जान लेना यह दोनों तो उपदेशके अनुसार होते हैं- जैसा उपदेश दिया हो वैसा याद कर लेना। तथा परीक्षा करनेमें अपना विवेक चाहिये। सो विवेकपूर्वक एकान्तमें अपने उपयोगमें विचार करे कि जैसा उपदेश दिया वैसा ही है या अन्यथा है ? वहाँ अनुमानादिक प्रमाणसे बराबर समझे। अथवा उपदेश तो ऐसा है, और ऐसा न माने तो ऐसा होगा; सो इनमें प्रबल युक्ति कौन है और निर्बल युक्ति कौन है ? जो प्रबल भासित हो उसे सत्य जाने। तथा यदि उपदेशमें अन्यथा सत्य भासित हो, अथवा उसमें सन्देह रहे, निर्धार न हो; तो जो विशेषज्ञ हों उनसे पूछे, और वे उत्तर दें उसका विचार करे। इसीप्रकार जबतक निर्धार न हो तबतक प्रश्न-उत्तर करे। अथवा समान बुद्धिक धारक हों उनसे अपना विचार जैसा हुआ हो वैसा कहे और प्रश्न-उत्तर द्वारा परस्पर चर्चा करे; तथा जो प्रश्नोत्तरमें निरूपण हुआ हो उसका एकान्तमें विचार करे। इसीप्रकार जबतक अपने अंतरंगमें - जैसा उपदेश दिया था वैसा ही निर्णय होकर - भाव भासित न हो तब तक इसीप्रकार उद्यम किया करे।
तथा अन्यमतियों द्वारा जो कल्पित तत्त्वोंका उपदेश दिया गया है, उससे जैन उपदेश अन्यथा भासित हो व सन्देह हो - तब भी पूर्वोक्त प्रकारसे उद्यम करे।
ऐसा उद्यम करनेपर जैसा जिनदेवका उपदेश है वैसा ही सत्य है, मुझे भी इसीप्रकार भासित होता है - ऐसा निर्णय होता है; क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी हैं नहीं।
यहाँ कोई कहे कि जिनदेव यदि अन्यथावादी नहीं हैं तो जैसा उनका उपदेश है वैसा ही श्रद्धान कर लें, परीक्षा किसलिये करें ?
समाधान :- परीक्षा किये बिना यह तो मानना हो सकता है कि जिनदेवने ऐसा कहा है सो सत्य है; परन्तु उनका भाव अपनेको भासित नहीं होगा। तथा भाव भासित हुये बिना निर्मल श्रद्धान नहीं होता; क्योंकि जिसकी किसीके वचनहीसे प्रतीति की जाय, उसके अन्यके भी वचनसे अन्यथा प्रतीति हो जाय; इसलिये शक्तिअपेक्षा वचनसे की गई प्रतीति अप्रतीतिवत् है। तथा जिसका भाव भासित हुआ हो, उसे अनेक प्रकारसे भी अन्यथा नहीं मानता; इसलिये भाव भासित होनेपर जो प्रतीति होती है वही सच्ची प्रतीति है।
यहाँ यदि कहोगे कि पुरुषकी प्रमाणतासे वचनकी प्रमाणता की जाती है ? तो पुरुषकी भी प्रमाणता स्वयमेव तो नहीं होती; उसके कुछ वचनोंकी परीक्षा पहले कर ली जाये, तब पुरुषकी प्रमाणता होती है।
प्रश्न :- उपदेश तो अनेक प्रकारके हैं, किस-किसकी परीक्षा करें ?
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