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सातवाँ अधिकार]
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इस प्रकार नयोंद्वारा एक ही वस्तुको एक भाव अपेक्षा 'ऐसा भी मानना और ऐसा भी मानना,' वह तो मिथ्याबुद्धि है; परन्तु भिन्न-भिन्न भावोंकी अपेक्षा नयोंकी प्ररूपणा है – ऐसा मानकर यथासम्भव वस्तुको मानना सो सच्चा श्रद्धान है। इसलिये मिथ्यादृष्टि अनेकान्तरूप वस्तुको मानता है परन्तु यथार्थ भावको पहिचानकर नहीं मान सकता - ऐसा जानना।
तथा इस जीवके व्रत, शील, संयमादिकका अंगीकार पाया जाता है, सो व्यवहारसे 'ये भी मोक्षके कारण हैं '- ऐसा मानकर उन्हें उपादेय मानता है; सो जैसे पहले केवल व्यवहारावलम्बी जीवके अयथार्थपना कहा था वैसे ही इसके भी अयथार्थपना जानना।
तथा यह ऐसा भी मानता है कि यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करने योग्य है; परन्तु इसमें ममत्व नहीं करना। सो जिसका आप कर्ता हो, उसमें ममत्व कैसे नहीं किया जाय ? आप कर्ता नहीं है तो मुझको करने योग्य है' ऐसा भाव कैसे किया ? और यदि कर्ता हैं तो वह अपना कर्म हुआ, तब कर्ता-कर्म सम्बन्ध स्वयमेव ही हुआ; सो ऐसी मान्यता तो भ्रम
तो कैसे है ? बाह्य व्रतादिक हैं वे तो शरीरादिक परद्रव्यके आश्रित हैं, परद्रव्यका आप कर्ता है नहीं; इसलिये उसमें कर्तृत्वबुद्धि भी नहीं करना और वहाँ ममत्व भी नहीं करना। तथा व्रतादिकमें ग्रहण-त्यागरूप अपना शुभोपयोग हो, वह अपने आश्रित है, उसका आप कर्ता है; इसलिये उसमें कर्तृत्वबुद्धि भी मानना और वहाँ ममत्व भी करना। परन्तु इस शुभोपयोगको बन्धका ही कारण जानना, मोक्षका कारण नहीं जानना, क्योंकि बन्ध और मोक्षके तो प्रतिपक्षीपना है; इसलिये एक ही भाव पुण्यबन्धका भी कारण हो और मोक्षका भी कारण हो - ऐसा मानना भ्रम है।
इसलिये व्रत-अव्रत दोनों विकल्परहित जहाँ परद्रव्यके ग्रहण-त्यागका कुछ प्रयोजन नहीं है - ऐसा उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग वही मोक्षमार्ग है। तथा निचली दशामें कितने ही जीवोंके शुभोपयोग और शुद्धोपयोगका युक्तपना पाया जाता है; इसलिये उपचारसे व्रतादिक शुभोपयोगको मोक्षमार्ग कहा है; वस्तुका विचार करनेपर शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है; क्योंकि बन्धका कारण वह ही मोक्षका घातक है - ऐसा श्रद्धान करना।
इसप्रकार शुद्धोपयोग ही को उपादेय मानकर उसका उपाय करना, और शुभोपयोग-अशुभोपयोगको हेय जानकर उनके त्यागका उपाय करना। जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके वहाँ अशुभोपयोगको छोड़कर शुभमें ही प्रवर्तन करना, क्योंकि शुभोपयोगकी अपेक्षा
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