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सातवाँ अधिकार]
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तथा षटपाहुड़में कहा है :
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।। ३१ ।। ( मोक्षपाहुड़) अर्थ :- जो व्यवहारमें सोता है वह योगी अपने कार्यमें जागता है। तथा जो व्यवहारमें जागता है वह अपने कार्यमें सोता है।
इसलिये व्यवहारनयका श्रद्धान छोड़कर निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है।
व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको व उनके भावोंको व कारणकार्यादिकको किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग करना। तथा निश्चयनय उन्हींको यथावत् निरूपण करता है, किसीको किसीमें नहीं मिलाता है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है; इसलिये उसका श्रद्धान करना।
यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्गमें दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा है, सो कैसे?
समाधान :- जिनमार्गमें कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' - ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ‘ऐसे है नहीं, निमित्तादिकी अपेक्षा उपचार किया है' - ऐसा जानना। इसप्रकार जाननेका नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है। तथा दोनों नयोंके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर ‘ऐसे भी है, ऐसे भी है'- इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तनसे तो दोनों नयोंका ग्रहण करना नहीं कहा है।
फिर प्रश्न है कि यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिनमार्गमें किसलिये दिया ? एक निश्चयनयहीका निरूपण करना था। समाधान :- ऐसा ही तर्क समयसारमें किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है :
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं ।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।।८।। अर्थ :- जिस प्रकार अनार्य अर्थात् म्लेच्छको म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है; उसी प्रकार व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है; इसलिये व्यवहारका उपदेश है।
तथा इसी सूत्रकी व्याख्यामें ऐसा कहा है कि “व्यवहारनयो नानुसतव्य"'
एवं म्लेच्छ स्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोपि म्लेच्छभाषा स्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्व्यवहारनयो नानुसर्तव्य: ।
(समयसार गाथा ८ की आत्मख्याति टीका)
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