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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२४९ निरूपण सो व्यवहार इसलिये निरूपण-अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना। (किन्तु) एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है - इसप्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। तथा निश्चय-व्यवहार दोनोंको उपादेय मानता है वह भी भ्रम है; क्योंकि निश्चयव्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोधसहित है। कारण कि समयसारमें ऐसा कहा है : “ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिऊण सुद्धणउ' ।” अर्थ :- व्यवहार अभूतार्थ है, सत्यस्वरूपका निरूपण नहीं करता, किसी अपेक्षा उपचारसे अन्यथा निरूपण करता है। तथा शुद्धनय जो निश्चय है, वह भूतार्थ है, जैसा वस्तुका स्वरूप है वैसा निरूपण करता है। इस प्रकार इन दोनोंका स्वरूप तो विरुद्धतासहित है। तथा तू ऐसा मानता है कि सिद्धसमान शुद्ध आत्माका अनुभवन सो निश्चय, और व्रत, शील, संयमादिरूप प्रवृत्ति सो व्यवहार; सो तेरा ऐसा मानना ठीक नहीं है; क्योंकि किसी द्रव्यभावका नाम निश्चय और किसीका नाम व्यवहार - ऐसा नहीं है। एक ही द्रव्यके भावको उस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है, उपचारसे उस द्रव्यके भावको अन्यद्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। जैसे - मिट्टीके घड़ेको मिट्टीका घड़ा निरूपित किया जाय सो निश्चय और घृतसंयोगके उपचारसे उसीको घृतका घड़ा कहा जाय सो व्यवहार। ऐसे ही अन्यत्र जानना। इसलिये तू किसीको निश्चय माने और किसीको व्यवहार माने वह भ्रम है। तथा तेरे माननेमें भी निश्चय-व्यवहारको परस्पर विरोध आया। यदि तू अपनेको सिद्धसमान शुद्ध मानता है तो व्रतादिक किसलिये करता है ? यदि व्रतादिकके साधन द्वारा सिद्ध होना चाहता है तो वर्तमानमें शुद्ध आत्माका अनुभव मिथ्या हुआ। इसप्रकार दोनों नयोंके परस्पर विरोध है; इसलिये दोनों नयोंका उपादेयपना नहीं बनता। यहाँ प्रश्न है कि समयसारादिमें शुद्ध आत्माके अनुभवको निश्चय कहा है; व्रत, तप, संयमादिको व्यवहार कहा है; उसप्रकार ही हम मानते हैं ? समाधान :- शुद्ध आत्माका अनुभव सच्चा मोक्षमार्ग है, इसलिये उसे निश्चय कहा। यहाँ स्वभावसे अभिन्न, परभावसे भिन्न - ऐसा 'शुद्ध' शब्दका अर्थ जानना। संसारी को सिद्ध मानना - ऐसा भ्रमरूप अर्थ 'शुद्ध' शब्दका नहीं जानना। १ ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।। ११ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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