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सातवाँ अधिकार ]
[ २४३
यहाँ कोई जाने कि बाह्यमें तो अणुव्रत - महाव्रतादि साधते हैं, अंतरंग परिणाम नहीं है, और स्वर्गादिककी वांछासे साधते हैं ? सो इसप्रकार साधनेसे तो पापबन्ध होता है । द्रव्यलिंगी मुनि अन्तिम ग्रैवेयक तक जाते हैं और पंचपरावर्तनोंमें इकतीस सागर पर्यन्त देवायुकी प्राप्ति अनन्तबार होना लिखा है; सो ऐसे उच्चपद तो तभी प्राप्त करे जब अन्तरंग परिणामपूर्वक महाव्रत पाले, महामन्दकषायी हो, इस लोक-परलोकके भोगादिककी चाह न हो; केवल धर्मबुद्धिसे मोक्षाभिलाषी हुआ साधन साधे। इसलिये द्रव्यलिंगीके स्थूल तो अन्यथापना है नहीं, सूक्ष्म अन्यथापना है; सो सम्यग्दृष्टिको भासित होता है ।
अब इनके धर्मसाधन कैसे हैं और उसमें अन्यथापना कैसे है ?
सो कहते हैं :
प्रथम तो संसारमें नरकादिके दुःख जानकर व स्वर्गादिमें भी जन्म-मरणादिके दुःख जानकर, संसारसे उदास होकर मोक्षको चाहते हैं । सो इन दुःखोंको तो दुःख सभी जानते हैं। इन्द्र–अहमिन्द्रादिक विषयानुरागसे इन्द्रियजनित सुख भोगते हैं, उसे भी दुःख जानकर निराकुल सुखअवस्थाको पहिचानकर मोक्षको चाहते हैं; वे ही सम्यग्दृष्टि जानना।
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तथा विषयसुखादिकका फल नरकादिक है; शरीर अशुचि, विनाशीक है, पोषण योग्य नहीं है; कुटुम्बादिक स्वार्थके सगे हैं; इत्यादि परद्रव्योंका दोष विचारकर उनका तो त्याग करते हैं- और व्रतादिकका फल स्वर्ग- मोक्ष है; तपश्चरणादि पवित्र अविनाशी फलके दाता हैं, उनके द्वारा शरीरका शोषणकरने योग्य है; देव - गुरु-शास्त्रादि हितकारी हैं; इत्यादि परद्रव्योंके गुणोंका विचार करके उन्हींको अंगीकार करते हैं। इत्यादि प्रकारसे किसी परद्रव्यको बुरा जानकर अनिष्टरूप श्रद्धान करते हैं, किसी परद्रव्यको भला जानकर इष्ट श्रद्धान करते हैं । सो परद्रव्योंमे इष्ट - अनिष्टरूप श्रद्धान सो मिथ्या है।
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तथा इसी श्रद्धानसे इनके उदासीनता भी द्वेषबुद्धिरूप होती है; क्योंकि किसीको बुरा जानना उसीका नाम द्वेष है ।
कोई कहेगा सम्यग्दृष्टि भी तो बुरा जानकर परद्रव्यका त्याग करते हैं ?
समाधान :- सम्यग्दृष्टि परद्रव्योंको बुरा नहीं जानते, अपने रागभावको बुरा जानते हैं। आप रागभावको छोड़ते हैं, इसलिये उसके कारणका भी त्याग होता है। वस्तुका विचार करनेसे कोई परद्रव्य तो बुरा-भला है नहीं ।
कोई कहेगा निमित्तमात्र तो है ?
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