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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार ] [२३९ लिये अन्य उपाय करता है। जैसे - तृषा लगे तब पानी तो न पिये और अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करे, व घृत तो छोड़े और अन्य स्निग्ध वस्तुका उपाय करके भक्षण करे। - इसी प्रकार अन्य जानना। यदि परीषह नहीं सहे जाते थे, विषय-वासना नहीं छूटी थी; तो ऐसी प्रतिज्ञा किसलिये की ? सुगम विषय छोड़कर पश्चात् विषम विषयोंका उपाय करना पड़े ऐसा कार्य क्यों करे ? वहाँ तो उलटा रागभाव तीव्र होता है। अथवा प्रतिज्ञामें दुःख हो तब परिणाम लगानेके लिये कोई आलम्बन विचारता है। जैसे - उपवास करके फिर क्रीड़ा करता है, कितने ही पापी जुआ आदि कुव्यसनोंमें लग जाते हैं, अथवा सो रहना चाहते हैं। ऐसा जानते हैं कि किसी प्रकार काल पूरा करना। - इसीप्रकार अन्य प्रतिज्ञामें जानना। अथवा कितने ही पापी ऐसे भी हैं कि पहले प्रतिज्ञा करते हैं, बादमें उससे दुःखी हों तब प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं। प्रतिज्ञा लेना छोड़ना उनको खेल मात्र है; सो प्रतिज्ञा भंग करनेका महापाप है; इससे तो प्रतिज्ञा न लेना ही भला है। इस प्रकार पहले तो निर्विचार होकर प्रतिज्ञा करते हैं और पश्चात् ऐसी दशा होती जैनधर्म में प्रतिज्ञा न लेनेका दण्ड तो है नहीं। जैनधर्ममें तो ऐसा उपदेश है कि पहले तो तत्त्वज्ञानी हो; फिर जिसका त्याग करे उसका दोष पहिचाने; त्याग करनेमें जो गुण हो उसे जाने; फिर अपने परिणामोंको ठीक करे; वर्तमान परिणामोंहीके भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे; भविष्यमें निर्वाह होता जाने तो प्रतिज्ञा करे; तथा शरीरकी शक्ति व द्रव्य , क्षेत्र, काल, भावादिकका विचार करे। - इसप्रकार विचार करके फिर प्रतिज्ञा करनी। वह भी ऐसी करनी जिससे प्रतिज्ञाके प्रति निरादरभाव न हो, परिणाम चढ़ते रहें। ऐसी जैनधर्मकी आम्नाय है। यहाँ कोई कहे कि चांडालादिकने प्रतिज्ञा की, उनके इतना विचार कहाँ होता है ? समाधान :- मरणपर्यन्त कष्ट हो तो हो, परन्तु प्रतिज्ञा नहीं छोड़ना - ऐसा विचार करके वे प्रतिज्ञा करते हैं; प्रतिज्ञाके प्रति निरादरपना नहीं होता। और सम्यग्दृष्टि जो प्रतिज्ञा करते हैं सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करते हैं। तथा जिनके अन्तरंग विरक्तता नहीं और बाह्यप्रतिज्ञा धारण करते हैं, वे प्रतिज्ञाके पहले और बादमें जिसकी प्रतिज्ञा करें उसमें अति आसक्त होकर लगते हैं। जैसे उपवासके धारणे-पारणेके भोजनमें अति लोभी होकर गरिष्ठादि भोजन करते हैं, शीघ्रता बहुत करते Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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