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सातवाँ अधिकार ]
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प्रथम सच्चा तत्त्वज्ञान हो; वहाँ फिर पुण्य-पापके फलको संसार जाने, शुद्धोपयोगसे मोक्ष माने, गुणस्थानादिरूप जीवका व्यवहारनिरूपण जाने; इत्यादि ज्योंका त्यों श्रद्धान करता हुआ इनका अभ्यास करे तो सम्यग्ज्ञान हो।
सो तत्त्वज्ञानके कारण आध्यात्मरूप द्रव्यानुयोगके शास्त्र हैं, और कितने ही जीव उन शास्त्रोंका भी अभ्यास करते हैं; परन्तु वहाँ जैसा लिखा है वैसा निर्णय स्वयं करके आपको
, परको पररूप और आस्रवादिका आस्रवादिरूप श्रद्धान नहीं करते। मुखसे तो यथावत् निरूपण ऐसा भी करें जिसके उपदेशसे अन्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जाये। परन्तु जैसे
| स्त्रीका स्वांग बनाकर ऐसा गाना गाये जिसे सनकर अन्य पुरुष-स्त्री कामरूप हो जायें; परन्तु वह तो जैसा सीखा वैसा कहता है, उसे कुछ भाव भासित नहीं होता, इसलिये स्वयं कामासक्त नहीं होता। उसी प्रकार यह जैसा लिखा है वैसा उपदेश देता है; परन्तु स्वयं अनुभव नहीं करता । यदि स्वयंको श्रद्धान हुआ होता तो अन्य तत्त्वका अंश अन्य तत्त्वमें न मिलाता; परन्तु इसका ठिकाना नहीं है, इसलिये सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
इस प्रकार यह ग्यारह अंग तक पढ़े, तथापि सिद्धि नहीं होती। सो समयसारादिमें मिथ्यादृष्टिको ग्यारह अंगोंका ज्ञान होना लिखा है।
___ यहाँ कोई कहे कि ज्ञान तो इतना होता है; परन्तु जैसा अभव्यसेनको श्रद्धानरहित ज्ञान हुआ वैसा होता है ?
समाधान :- वह तो पापी था, जिसे हिंसादिकी प्रवृत्तिका भय नहीं था। परन्तु जो जीव ग्रैवेयिक आदिमें जाता है उसके ऐसा ज्ञान होता है; वह तो श्रद्धानरहित नहीं है। उसके तो ऐसा ही श्रद्धान है कि यह ग्रन्थ सच्चे हैं, परन्तु तत्त्वश्रद्धान सच्चा नहीं हुआ। समयसार में एक ही जीवके धर्मका श्रद्धान, ग्यारह अंगका ज्ञान और महाव्रतादिका पालन करना लिखा है। प्रवचनसारमें ऐसा लिखा है कि आगमज्ञान ऐसा हुआ जिसके द्वारा सर्व पदार्थोंको हस्तामलकवत् जानता है। यह भी जानता है कि इनका जाननेवाला मैं हूँ; परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, इसप्रकार स्वयंको परद्रव्यसे भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य अनुभव नहीं करता। इसलिये आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नहीं है।
इस प्रकार यह सम्यग्ज्ञानके अर्थ जैन शास्त्रोंका अभ्यास करता है, तथापि इसके सम्यग्ज्ञान नहीं है।
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