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सातवाँ अधिकार]
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बुद्धि आती है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्मका सेवन तो संसार-नाशके लिये किया जाता है; जो उसके द्वारा सांसारिक प्रयोजन साधना चाहते हैं वे बड़ा अन्याय करते हैं। इसलिये वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
यहाँ कोई कहे – हिंसादि द्वारा जिन कार्योंको करते हैं; वही कार्य धर्म-साधन द्वारा सिद्ध किये जायें तो बुरा क्या हुआ ? दोनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं ? ।
उससे कहते हैं – पापकार्य और धर्मकार्य का एक साधन करनेसे पाप ही होता है। जैसे – कोई धर्मका साधन चैत्यालय बनवाये और उसीको स्त्री-सेवनादि पापोंका भी साधन करे तो पाप ही होगा। हिंसादि द्वारा भोगादिकके हेतु अलग मकान बनवाता है तो बनवाये, परन्तु चैत्यालयमें भोगादि करना योग्य नहीं है। उसी प्रकार धर्मका साधन पूजा, शास्त्रादिक कार्य हैं; उन्हींको आजीविकादि पापका भी साधन बनाये तो पापी ही होगा। हिंसादिसे आजीविकादिके अर्थ व्यापारादि करता है तो करे, परन्तु पूजादि कार्यों में तो आजीविकादिका प्रयोजन विचारना योग्य नहीं है।
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो मुनि भी धर्मसाधन कर पर-घर भोजन करते हैं तथा साधर्मी साधर्मी का उपकार करते-कराते हैं सो कैसे बनेगा ?
उत्तर :- वे आप तो कुछ आजीविकादिका प्रयोजन विचारकर धर्म-साधन नहीं करते। उन्हें धर्मात्मा जानकर कितने ही स्वयमेव भोजन उपकारादि करते हैं, तब तो कोई दोष है नहीं। तथा यदि आप भोजनादिकका प्रयोजन विचारकर धर्म-साधता है तो पापी है ही। जो विरागी होकर मुनिपना अंगीकार करते हैं उनको भोजनादिकका प्रयोजन नहीं है। शरीरकी स्थितिके अर्थ स्वयमेव भोजनादि कोई दे तो लेते हैं, नहीं तो समता रखते हैं - संक्लेशरूप नहीं होते। तथा अपने हितके अर्थ धर्म साधते हैं। उपकार करवानेका अभिप्राय नहीं है, और आपके जिसका त्याग नहीं है वैसा उपकार कराते हैं। कोई साधर्मी स्वयमेव उपकार करता है तो करे, और यदि न करे तो उन्हें कुछ संक्लेश होता नहीं। – सो ऐसा तो योग्य है। परन्तु आपही आजीवकादिका प्रयोजन विचारकर बाह्यधर्मका साधन करे, जहाँ भोजनादिक उपकार कोई न करे वहाँ संक्लेश करे, याचना करे, उपाय करे, अथवा धर्मसाधनमें शिथिल हो जाये; तो उसे पापी ही जानना।
इसप्रकार सांसारिक प्रयोजनसहित जो धर्म साधते हैं वे पापी भी हैं और मिथ्यादृष्टि तो हैं ही।
इसप्रकार जिनमतवाले भी मिथ्यादृष्टि जानना।
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