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मैं आतम अरु पुद्गल खंध, मिलिकै भयो परस्पर बंध । सो असमान जाति पर्याय , उपज्यो मानुष नाम कहाय ।। ३८ ।। मात गर्भमें सो पर्याय , करके पूरण अंग सुभाय । बाहर निकसि प्रगट जब भयो ,तब कुटुम्बको मेलो भयो ।। ३९ ।। नाम धर्यो तिन हर्षित होय, टोडरमल्ल 'कहे सब कोय । ऐसो यहु मानुष पर्याय , बधत भयो निज काल गमाय ।। ४०।। देश ढुंढारह मांही महान, नगर 'सवाई' जयपुर थान ।। तामें ताको रहनो घनो, थोरो रहनो ओठे बनो ।। ४१ ।। तिस पर्यायवि जो कोय, देखन-जानन हारो सोय । मैं हूँ जीव-द्रव्य गुन-भूप, एक अनादि-अनन्त अरूप ।। ४२ ।। कर्म उदय को कारण पाय, रागादिक हो हैं दुःखदाय । ते मेरे औपाधिक भाव, इनिकों विनशैं मैं शिवराय ।। ४३।। प्रतिभा के धनी और आत्म साधना-सम्पन्न होने पर भी उन्हें अभिमान छ भी नहीं गया था। अपनी रचनाओंके कर्तृत्व के सम्बन्धमें लिखते हैं :
वचनादिक लिखनादिक क्रिया, वर्णादिक अरु इन्द्रिय हिया । ये सब हैं पुद्गल के खेल, इनमें नाहीं हमारो मेल ।। रागादिक वचनादिक घनां, इनके कारण कारिज पनां । तातें भिन्न न देख्यो कोय, बिनु विवेक जग अंधा होय ।। ज्ञान राग तो मेरौ मिल्यौ, लिखनौ करनौ तनुको मिल्यौ । कागज मसि अक्षर आकार, लिखिया अर्थ प्रकाशन हार ।। ऐसौ पुस्तक भयो महान, जातें जानें अर्थ सुजान । यद्यपि यहु पुद्गलको खंद, है तथापि श्रुतज्ञान निबंध ।।
१ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति
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