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सातवाँ अधिकार]
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तो आप भी छोड़ देगा। तथा वह जो आचरण करता है सो कुलके भयसे करता है, कुछ धर्मबुद्धिसे नहीं करता, इसलिये वह धर्मात्मा नहीं है।
इसलिये विवाहादि कुलसम्बन्धी कार्यों में तो कुलक्रमका विचार करना, परन्तु धर्म सम्बन्धी कार्यमें कुलका विचार नहीं करना। जैसा धर्ममार्ग सच्चा है, उसी प्रकार प्रवर्तन करना योग्य है।
[परीक्षारहित आज्ञानुसारी धर्मधारक व्यवहाराभासी] तथा कितने ही आज्ञानुसारी जैनी होते हैं। जैसी शास्त्रमें आज्ञा है उस प्रकार मानते हैं, परन्तु आज्ञाकी परीक्षा करते नहीं। यदि आज्ञा ही मानना धर्म हो तो सर्व मतवाले अपने-अपने शास्त्रकी आज्ञा मानकर धर्मात्मा हो जायें; इसलिये परीक्षा करके जिनवचनकी सत्यता पहिचानकर जिनआज्ञा मानना योग्य है।
बिना परीक्षा किये सत्य-असत्यका निर्णय कैसे हो? और बिना निर्णय किये जिस प्रकार अन्यमती अपने शास्त्रोंकी आज्ञा मानते हैं उसी प्रकार इसने जैनशास्त्रोंकी आज्ञा मानी। यह तो पक्षसे आज्ञा मानना है।
कोई कहे कि शास्त्रमें दस प्रकारके सम्यक्त्वमें आज्ञासम्यक्त्व कहा है व आज्ञाविचय धर्मध्यानका भेद कहा है व निःशंकित अंगमें जिनवचनमें संशयका निषेध किया है; वह किस प्रकार है ?
समाधान :- शास्त्रमें कितने ही कथन तो ऐसे हैं जिनकी प्रत्यक्ष-अनुमानादि द्वारा परीक्षा कर सकते हैं, तथा कई कथन ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष-अनुमानादि गोचर नहीं हैं; इसलिये आज्ञाही से प्रमाण होते हैं। वहाँ नाना शास्त्रोंमें जो कथन समान हों उनकी तो परीक्षा करनेका प्रयोजन ही नहीं है; परन्तु जो कथन परस्पर विरुद्ध हों उनमेंसे जो कथन प्रत्यक्ष-अनुमानादि गोचर हों उनकी तो परीक्षा करना। वहाँ जिन शास्त्रोंके कथनकी प्रमाणता ठहरे, उन शास्त्रोंमें जो प्रत्यक्ष-अनुमानगोचर नहीं हैं - ऐसे कथन किये हों, उनकी भी प्रमाणता करना। तथा जिन शास्त्रोंके कथनकी प्रमाणता न ठहरे उनके सर्व ही कथनकी अप्रमाणता मानना।
यहाँ कोई कहे कि परीक्षा करने पर कोई कथन किसी शास्त्रमें प्रमाण भासित हो, तथा कोई कथन किसी शास्त्रमें प्रमाण भासित हो; तब क्या करें ?
समाधान :- जो आप्त-भासित शास्त्र हैं उनमें कोई भी कथन प्रमाण-विरुद्ध नहीं होते। क्योंकि या तो जानपना ही न हो अथवा राग-द्वेष हो तब असत्य कहें, सो आप्त ऐसे होते नहीं। तूने परीक्षा भलेप्रकार नहीं की, इसलिये भ्रम है।
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