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सातवाँ अधिकार ]
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फिर कहा है :
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वशून्याः ।। १३७ ।।
इस प्रकार
अर्थ :- स्वयमेव यह मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मेरे कदाचित् बन्ध नहीं है ऊँचा फुलाया है मुँह जिन्होंने ऐसे रागी वैराग्यशक्ति रहित आचरण करते हैं तो करो, तथा पाँच समितिकी सावधानीका अवलम्बन लेते हैं तो लो; परन्तु वे ज्ञानशक्ति बिना आज भी पापी ही हैं। यह दोनों आत्मा - अनात्माके ज्ञानरहितपने से सम्यक्त्वरहित ही हैं।
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फिर पूछते हैं परको पर जाना तो परद्रव्योंमें रागादि करनेका क्या प्रयोजन रहा ? वहाँ कहता है मोहके उदयसे रागादिक होते हैं । पूर्वकालमें भरतादिक ज्ञानी हुए उनके भी विषय-कषायरूप कार्य हुआ सुनते हैं।
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उत्तर :- ज्ञानीके भी मोहके उदयसे रागादिक होते हैं, यह सत्य है; परन्तु बुद्धिपूर्वक रागादिक नहीं होते। उसका विशेष वर्णन आगे करेंगे।
तथा जिसके रागादिक होनेका कुछ विषाद नहीं है, उसके नाशका उपाय भी नहीं है, उसको रागादिक बुरे हैं - ऐसा श्रद्धान भी नहीं सम्भवित होता । और ऐसे श्रद्धान बिना सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? जीवाजीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करनेका प्रयोजन तो इतना ही श्रद्धान है।
तथा भरतादिक सम्यग्दृष्टियोंके विषय कषायोंकी प्रवृत्ति जैसे होती है वह भी विशेषरूपसे आगे कहेंगे। तू उनके उदाहरणसे स्वच्छन्द होगा तो तुझे तीव्र आस्रव - बन्ध होगा।
वही कहा है :
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मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ।”
अर्थ :- ज्ञाननयका अवलोकन करनेवाले भी जो स्वच्छन्द मन्दउद्यमी होते हैं, वे संसारमें डुबते हैं।
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और भी वहाँ “ ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तु मुचितं' इत्यादि कलशमें तथा “ तथापि
मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन् मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदति विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं
ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते, मुंक्षे हंत न जातु मे यदि परं बंध: स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते ज्ञानं सन्वस बंधमेष्यपरथा
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स्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । यान्ति प्रमादस्य च ।। ( समयसार कलश १११ ) दुर्भुक्त एवासि भोः । स्वस्यापराधाद्ध्रुवम् ।।
( समयसार कलश १५१ )