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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक और सुन, केवल आत्मज्ञानहीसे तो मोक्षमार्ग होता नहीं है। सात तत्त्वोंका श्रद्धानज्ञान होनेपर तथा रागादिक दूर करने पर मोक्षमार्ग होगा। सो सात तत्त्वोंके विशेष जाननेको जीव-अजीवके विशेष तथा कर्मके आस्रव-बन्धादिकके विशेष अवश्य जानने योग्य हैं, जिनसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति हो। और वहाँ पश्चात् रागादिक दूर करना। सो जो रागादिक बढ़ानेके कारण हैं उन्हें छोड़कर - जो रागादिक घटानेके कारण हों वहाँ उपयोगको लगाना। सो द्रव्यादिक और गुणस्थानादिकके विचार रागादिक घटानेके कारण हैं। इनमें कोई रागादिकका निमित्त नहीं है। इसलिये सम्यग्दृष्टि होनेके पश्चात भी यहाँ ही उपयोग लगाना। फिर वह कहता है कि रागादि मिटानेके कारण हों उनमें तो उपयोग लगाना - परन्तु त्रिलोकवर्ती जीवोंकी गति आदिका विचार करना; कर्मके बन्ध, उदय, सत्तादिके बहुत विशेष जानना तथा त्रिलोकके आकार प्रमाणादिक जानना; - इत्यादि विचार क्या कार्यकारी हैं ? उत्तर :- इनके भी विचार करनेसे रागादिक बढ़ते नहीं हैं, क्योंकि वे ज्ञेय इसको इष्ट-अनिष्टरूप हैं नहीं, इसलिये वर्तमान रागादिकके कारण नहीं हैं। तथा इनको विशेष जाननेसे तत्त्वज्ञान निर्मल हो, इसलिये आगामी रागादिक घटानेको ही कारण हैं, इसलिये कार्यकारी हैं। फिर वह कहता है – स्वर्ग-नरकादिको जाने वहाँ तो राग-द्वेष होता है ? समाधान :- ज्ञानीके तो ऐसी बुद्धि होती नहीं है, अज्ञानीके होती है। वहाँ पाप छोड़कर पुण्य-कार्यमें लगे वहाँ किंचित् रागादिक घटते ही हैं। फिर वह कहता है - शास्त्रमें ऐसा उपदेश है कि प्रयोजनभूत थोड़ाही जानना कार्यकारी है, इसलिये बहुत विकल्प किसलिये करें ? उत्तर :- जो जीव अन्य बहुत जानते हैं और प्रयोजनभूतको नहीं जानते; अथवा जिनकी बहुत जाननेकी शक्ति नहीं, उन्हें यह उपदेश दिया है। तथा जिसकी बहुत जाननेकी शक्ति हो उससे तो यह नहीं कहा कि बहुत जाननेसे बुरा होगा ? जितना बहुत जानेगा उतना प्रयोजनभूत जानना निर्मल होगा। क्योंकि शास्त्रमें ऐसा कहा है : ___“सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान भवेत् ।” इसका अर्थ यह है :- सामान्य शास्त्रसे विशेष बलवान है। विशेषसे ही अच्छी तरह निर्णय होता है, इसलिये विशेष जानना योग्य है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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