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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा कर्म-नोकर्मका सम्बन्ध होते हुए आत्माको निर्बन्ध मानते हैं, सो इनका बन्धन प्रत्यक्ष देखा जाता है, ज्ञानावरणादिकसे ज्ञानादिकका घात देखा जाता है, शरीर द्वारा उसके अनुसार अवस्थाएँ होती देखी जाती है, फिर बन्धन कैसे नहीं है ? यदि बन्धन न होतो मोक्षमार्गी इनके नाश का उद्यम किस लिये करे ?
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोंमें आत्माको कर्म-नोकर्मसे भिन्न अबद्धस्पृष्ट कैसे कहा है ?
उत्तर :- सम्बन्ध अनेक प्रकारके हैं। वहाँ तादात्म्यसम्बन्धकी अपेक्षा आत्माको कर्मनोकर्मसे भिन्न कहा है, क्योंकि द्रव्य पलटकर एक नहीं हो जाते, और इसी अपेक्षासे अबद्धस्पृष्ट कहा है। तथा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी अपेक्षा बन्धन है ही, उनके निमित्त से आत्मा अनेक अवस्थाएँ धारण करता ही है; इसलिये अपनेको सर्वथा निर्बन्ध मानना मिथ्यादृष्टि है।
यहाँ कोई कहे कि हमें तो बन्ध-मुक्तिका विकल्प करना नहीं, क्योंकि शास्त्रमें ऐसा कहा है :
“जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि सो बंधियहि णिभंतु।" अर्थ :- जो जीव बंधा और मुक्त हुआ मानता है वह निःसंदेह बँधता है।
उससे कहते हैं; जो जीव केवल पर्यायदृष्टि होकर बंध-मुक्त अवस्थाहीको मानते हैं, द्रव्यस्वभावका ग्रहण नहीं करते; उन्हें ऐसा उपदेश दिया है कि द्रव्यस्वभाव को न जानता हुआ जो जीव बंधा-मुक्त हुआ मानता है वह बंधता है। तथा यदि सर्वथा ही बंध-मुक्ति न हो तो यह जीव बँधता है - ऐसा क्यों कहें ? तथा बंधके नाशका - मुक्त होनेका उद्यम किसलिये किया जाये ? और किसलिये आत्मानुभव किया जाये ? इसलिये द्रव्यदृष्टिसे एक दशा है और पर्याय दृष्टिसे अनेक अवस्थाएँ होती हैं – ऐसा मानना योग्य है।
ऐसे ही अनेक प्रकार से केवल निश्चयनयके अभिप्रायसे विरुद्ध श्रद्धानादि करता है।
जिनवाणीमें तो नाना नयों कि अपेक्षासे कहीं कैसा, कहीं कैसा निरूपण किया है; यह अपने अभिप्रायसे निश्चयनयकी मुख्यता से जो कथन किया हो – उसीको ग्रहण करके मिथ्यादृष्टिको धारण करता है।
___ तथा जिनवाणीमें तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता होने पर मोक्षमार्ग कहा है; सो इसके सम्यग्दर्शन-ज्ञानमें सात तत्त्वोंका श्रद्धान और जानना होना चाहिए सो उनका विचार नहीं है, और चारित्रमें रागादिक दूर करना चाहिए उसका उद्यम नहीं है;
जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि निभंतु । सहज-सरूवइ जइ रमहि तो पावहि सिव संतु ।। ( योगसार, दोहा ८७)
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