SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates छठवाँ अधिकार ] [१९१ अब, इसमें मिथ्यात्वभाव किस प्रकार हुआ सो कहते हैं : तत्त्वश्रद्धान करनेमें प्रयोजनभूत तो एक यह है कि - रागादिक छोड़ना। इसी भावका नाम धर्म है। यदि रागादिक भावोंको बढ़ाकर धर्म माने, वहाँ तत्त्वश्रद्धान कैसे रहा ? तथा जिन-आज्ञासे प्रतिकूल हुआ। रागादिभाव तो पाप हैं, उन्हें धर्म माना सो यह झूठा श्रद्धान हुआ; इसलिये कुधर्मके सेवनमें मिथ्यात्वभाव है। इस प्रकार कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र सेवनमें मिथ्यात्वभावकी पुष्टि होती जानकर इसका निरूपण किया। यही “ षट्पाहुड़” में कहा है : कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।। ९२ ।। (मोक्षपाहुड़) अर्थ :- यदि लज्जासे, भयसे, व बड़ाईसे भी कुत्सित् देवको, कुत्सित् धर्मको व कुत्सित् लिंगको वन्दता है तो मिथ्यादृष्टि होता है। इसलिये जो मिथ्यात्वका त्याग करना चाहे; वह पहले कुदेव , कुगुरु, कुधर्मका त्यागी हो। सम्यक्त्वके पच्चीस मलोंके त्यागमें भी अमूढ़दृष्टिमें व षडायतनमें इन्हींका त्याग कराया है; इसलिये इनका अवश्य त्याग करना। तथा कुदेवादिकके सेवनसे जो मिथ्यात्वभाव होता है सो वह हिंसादिक पापोंसे बड़ा पाप है। इसके फलसे निगोद, नरकादि पर्यायें पायी जाती हैं। वहाँ अनन्तकालपर्यन्त महा संकट पाया जाता है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति महा दुर्लभ हो जाती है। यही “ षट्पाहुड़” में कहा है : कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो। कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइं ।।१४० ।। (भावपाहुड़) अर्थ :- जो कुत्सित धर्ममें रत है, कुत्सित पाखण्डियोंकी भक्तिसे संयुक्त है, कुत्सित तपको करता है; वह जीव कुत्सित अर्थात् खोटी गतिको भोगनेवाला होता है। सो हे भव्यो ! किंचित्मात्र लोभसे व भयसे कुदेवादिकका सेवन करके जिससे अनन्तकाल पर्यन्त महादुःख सहना होता है ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy