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छठवाँ अधिकार ]
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तथा विषयासक्त जीव रतिदानादिकमें पुण्य ठहराते हैं; परन्तु जहाँ प्रत्यक्ष कुशीलादि पाप हों वहाँ पुण्य कैसे होगा? तथा युक्ति मिलानेको कहते हैं कि वह स्त्री सन्तोष प्राप्त करती है। सो स्त्री तो विषय-सेवन करनेसे सुख पाती ही है, शीलका उपदेश किसलिये दिया ? रतिकालके अतिरिक्त भी उसके मनोरथ न प्रवर्ते तो दुःख पाती है; सो ऐसी असत्य युक्ति बनाकर विषय-पोषण करनेका उपदेश देते हैं।
इसी प्रकार दया-दान व पात्र-दानके सिवा अन्य दान देकर धर्म मानना सर्व कुधर्म
तथा व्रतादिक करके वहाँ हिंसादिक व विषयादिक बढ़ाते हैं; परन्तु व्रतादिक तो उन्हें घटानेके अर्थ किये जाते हैं। तथा जहाँ अन्नका तो त्याग करे और कंदमूलादिका भक्षण करे वहाँ हिंसा विशेष हुई, स्वादादिक विषय विशेष हुए।
तथा दिनमें तो भोजन करता नहीं है और रात्रिमें भोजन करता है; वहाँ प्रत्यक्ष ही दिन-भोजनसे रात्रि-भोजनमें विशेष हिंसा भासित होती है, प्रमाद विशेष होता है।
तथा व्रतादिक करके नाना शृंगार बनाता है, कुतूहल करता है, जुआ आदिरूप प्रवर्तता है - इत्यादि पापक्रिया करता है; तथा व्रतादिकका फल लौकिक इष्टकी प्राप्ति, अनिष्टके नाशको चाहता है; वहाँ कषायोंकी तीव्रता विशेष हुई।
इस प्रकार व्रतादिकसे धर्म मानता है सो कुधर्म है।
तथा कोई भक्ति आदि कार्यों में हिंसादिक पाप बढ़ाते हैं; गीत-नृत्यगानादिक व इष्ट भोजनादिक व अन्य सामग्रियों द्वारा विषयोंका पोषण करते हैं; कुतूहल प्रमादादिरूप प्रवर्तते हैं - वहाँ पाप तो बहुत उत्पन्न करते हैं और धर्मका किंचित् साधन नहीं है। वहाँ धर्म मानते हैं सो सब कुधर्म है।
तथा कितने ही शरीरको तो क्लेश उत्पन्न करते हैं, और वहाँ हिंसादिक उत्पन्न करते हैं व कषायादिरूप प्रवर्तते हैं। जैसे पंचाग्नि तपते हैं, सो अग्निसे बड़े-छोटे जीव जलते हैं, हिंसादिक बढ़ते हैं, इसमें धर्म क्या हुआ ? तथा औंधे मुँह झूलते हैं, ऊर्ध्वबाहु रखते हैं। - इत्यादि साधन करते हैं, वहाँ क्लेश ही होता है। यह कुछ धर्मके अंग नहीं हैं।
तथा पवन-साधन करते हैं वहाँ नेती, धोती इत्यादि कार्यों में जलादिकसे हिंसादिक उत्पन्न होते हैं; कोई चमत्कार उत्पन्न हो तो उससे मानादिक बढ़ते हैं; वहाँ किंचित् धर्मसाधन नहीं है। - इत्यादिक क्लेश तो करते हैं, विषय-कषाय घटानेका कोई साधन नहीं करते। अन्तरंगमें क्रोध, मान, माया, लोभका अभिप्राय है; वृथा क्लेश करके धर्म मानते हैं सो कुधर्म है।
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