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छठवाँ अधिकार ]
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यहाँ कोई कहे - हमारे अन्तरंगमें श्रद्धान तो सत्य है, परन्तु बाह्य लज्जादिसे शिष्टाचार करते हैं; सो फल तो अन्तरंगका होगा?
उत्तर :- षट्पाहुड़ में लज्जादिसे वन्दनादिकका निषेध बतलाया था, वह पहले ही कहा था। कोई जबरदस्ती मस्तक झुकाकर हाथ जुड़वाये, तब तो यह सम्भव है कि हमारा अन्तरंग नहीं था; परन्तु आप ही मानादिकसे नमस्कारादि करे, वहाँ अन्तरंग कैसे न कहें ? जैसे – कोई अन्तरंगमें तो माँसको बुरा जाने; परन्तु राजादिकको भला मनवानेको माँस भक्षण करे तो उसे व्रती कैसे माने ? उसी प्रकार अंतरंगमें तो कुगुरु-सेवनको बुरा जाने; परन्तु उनको व लोगों को भला मनवानेके लिये सेवन करे तो श्रद्धानी कैसे कहें ? इसलिये बाह्यत्याग करने पर ही अन्तरंगत्याग सम्भव है। इसलिये जो श्रद्धानी जीव हैं, उन्हें किसी प्रकारसे भी कुगुरुओंकी सुश्रुषा आदि करना योग्य नहीं है।
इस प्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया।
यहाँ कोई कहे – किसी तत्त्वश्रद्धानीको कुगुरुसेवनसे मिथ्यात्व कैसे हुआ ?
उत्तर :- जिस प्रकार शीलवती स्त्री परपुरुषके साथ भर्तारकी भाँति रमणक्रिया सर्वथा नहीं करती; उसी प्रकार तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरु के साथ सुगुरुकी भाँति नमस्कारादि क्रिया सर्वथा नहीं करता। क्योंकि यह तो जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धानी हुआ है - वहाँ रागादिकका निषेध करनेवाला श्रद्धान करता है, वीतरागभावको श्रेष्ठ मानता हैइसलिये जिसके वीतरागता पायी जाये, उन्हीं गरुको उत्तम जानकर नमस्कारादि करता है: जिनके रागादिक पाये जायें, उन्हें निषिद्ध जानकर कदापि नमस्कारादि नहीं करता।
कोई कहे – जिस प्रकार राजादिकको करता है; उसी प्रकार इनको भी करता है ?
उत्तर :- राजादिक धर्मपद्धतिमें नहीं हैं, गुरुका सेवन तो धर्मपद्धतिमें है। राजादिकका सेवन तो लोभादिकसे होता है, वहाँ चारित्रमोहका ही उदय सम्भव है; परन्तु गुरुके स्थान पर कुगुरुका सेवन किया, वहाँ तत्त्वश्रद्धानके कारण तो गुरु थे, उनसे यह प्रतिकूल हुआ। सो लज्जादिकसे जिसने कारणमें विपरीतता उत्पन्न की उसके कार्यभूत तत्त्वश्रद्धानमें दृढ़ता कैसे सम्भव है ? इसलिये वहाँ दर्शनमोहका उदय सम्भव है।
इस प्रकार कुगुरुओंका निरुपण किया।
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