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छठवाँ अधिकार ]
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प्रकार वर्तमानमें मुनियों का सद्भाव कहा है, परन्तु मुनि दिखायी नहीं देते तो औरोंको तो मुनि माना नहीं जा सकता।
फिर वह कहता है - एक अक्षरके दाताको गुरु मानते हैं; तो जो शास्त्र सिखलायें व सुनायें उन्हें गुरु कैसे न मानें ?
उत्तर :- गुरु नाम बड़ेका है। सो जिस प्रकारकी महंतता जिसके सम्भव हो, उसे उस प्रकार गुरुसंज्ञा सम्भव है। जैसे - कुल अपेक्षा माता-पिताको गुरुसंज्ञा है: उसी । प्रकार विद्या पढ़ानेवालेको विद्या अपेक्षा गुरुसंज्ञा है। यहाँ तो धर्मका अधिकार है, इसलिये जिसके धर्म अपेक्षा महंतता सम्भवित हो उसे गुरु जानना। परन्तु धर्म नाम चारित्रका है, “ चारित्तं खलु धम्मो” ' ऐसा शास्त्रमें कहा है; इसलिये चारित्रके धारकको ही गुरुसंज्ञा है। तथा जिस प्रकार भूतादिका नाम भी देव है, तथापि यहाँ देवके श्रद्धानमें अरहन्तदेवका ही ग्रहण है; उसी प्रकार औरोंका भी नाम गुरु है, तथापि यहाँ श्रद्धानमें निर्ग्रन्थका ही ग्रहण है। जैनधर्ममें अर्हन्तदेव , निर्ग्रन्थगुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।
यहाँ प्रश्न है कि निर्ग्रन्थके सिवा अन्यको गुरु नहीं मानते; सो क्या कारण है ?
उत्तर :- निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकारसे महंतता धारण नहीं करते। जैसे - लोभी शास्त्र व्याख्यान करे वहाँ वह इसे शास्त्र सुनानेसे महंत हुआ और यह उसे धनवस्त्रादि देनेसे महंत हुआ। यद्यपि बाह्यमें शास्त्र सुनानेवाला महंत रहता है, तथापि अन्तरंगमें लोभी होता है; इसलिये सर्वथा महंतता नहीं हुई।
यहाँ कोई कहे – निर्ग्रन्थ भी तो आहार लेते हैं ?
उत्तर :- लोभी होकर, दातारकी सुश्रुषा करके, दीनतासे आहार नहीं लेते; इसलिये महंतता नहीं घटती। जो लोभी हो वही हीनता प्राप्त करता है। इसी प्रकार अन्य जीव जानना। इसलिये निर्ग्रन्थ ही सर्वप्रकार महंततायुक्त हैं; निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकार गुणवान नहीं हैं; इसलिये गुणोंकी अपेक्षा महंतता और दोषोंकी अपेक्षा हीनता भासित होती है, तब निःशंक स्तुति नहीं की जा सकती ।
तथा निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव जैसा धर्म साधन करते हैं, वैसा व उससे अधिक धर्म साधन गृहस्थ भी कर सकते हैं; वहाँ गुरुसंज्ञा किसको होगी? इसलिये जो बाह्याभ्यन्तर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ मुनि हैं उन्हींको गुरु जानना।
यहाँ कोई कहे - ऐसे गुरु तो वर्तमानमें यहाँ नहीं हैं, इसलिये जिस प्रकार अरहन्तकी स्थापना प्रतिमा है, उसी प्रकार गुरुओंकी स्थापना यह वेषधारी हैं ?
१ प्रवचनसार गाथा १-७
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