________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
छठवाँ अधिकार ]
[१७७
तथा कितने ही पहले तो स्त्री आदिके त्यागी थे; बाद में भ्रष्ट होकर विवाहादि कार्य करके गृहस्थ हुए, उनकी सन्तति अपनेको गुरु मानती है; परन्तु भ्रष्ट होनेके बाद गुरुपना किस प्रकार रहा ? अन्य गृहस्थोंके समान यह भी हुए। इतना विशेष हुआ कि यह भ्रष्ट होकर गृहस्थ हुए; इन्हें मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसे मानें ?
तथा कितने ही अन्य तो सर्व पापकार्य करते हैं, एक स्त्रीसे विवाह नहीं करते और इसी अंगद्वारा गुरुपना मानते हैं। परन्तु एक अब्रह्म ही तो पाप नहीं है, हिंसा परिग्रहादिक भी पाप है; उन्हें करते हुए धर्मात्मा-गुरु किस प्रकार मानें ? तथा वह धर्मबुद्धिसे विवाहादिकका त्यागी नहीं हुआ है; परन्तु किसी आजीविका व लज्जा आदि प्रयोजनके लिये विवाह नहीं करता। यदि धर्मबुद्धि होती तो हिंसादिक किसलिए बढ़ाता ? तथा जिसके धर्मबुद्धि नहीं है उसके शीलकी भी दृढ़ता नहीं रहती, और विवाह नहीं करता तब परस्त्री गमनादि महापाप उत्पन्न करता है। ऐसी क्रिया होनेपर गुरुपना मानना महा भ्रष्टबुद्धि है।
तथा कितने ही किसी प्रकारका भेष धारण करनेसे गुरुपना मानते हैं; परन्तु भेष धारण करनेसे कौनसा धर्म हुआ कि जिससे धर्मात्मा-गुरु मानें ? वहाँ कोई टोपी लगाते हैं, कोई गुदड़ी रखते हैं, कोई चोला पहिनते हैं, कोई चादर ओढ़ते हैं, कोई लाल व हैं, कोई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कोई भगवा रखते हैं, कोई टाट पहिनते हैं, कोई मृगछाला रखते हैं, कोई राख लगाते हैं - इत्यादि अनेक स्वांग बनाते हैं। परन्तु यदि शीतउष्णादिक नहीं सहे जाते थे, लज्जा नहीं छूटी थी, तो पगड़ी जामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिका त्याग किसलिये किया ? उनको छोड़कर ऐसे स्वांग बनानेमें धर्मका कौनसा अंग हुआ ? गृहस्थोंको ठगनेके अर्थ ऐसे भेष जानना। यदि गृहस्थ जैसा अपना स्वांग रखे तो गृहस्थ ठगे कैसे जायेंगे? और इन्हें उनके द्वारा आजीविका व धनादिक व मानादिकका प्रयोजन साधना है; इसलिये ऐसे स्वांग बनाते हैं। भोला जगत उस स्वांगको देखकर ठगाता है और धर्म हुआ मानता है; परन्तु यह भ्रम है। यही कहा है :
जह कुवि वेस्सारत्तो मुसिज्जमाणो विमण्णए हरिसं । तह मिच्छवेसमुसिया गयं पि ण मुणंति धम्म-णिहिं ।।५।।
(उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला)
अर्थ:- जैसे कोई वैश्यासक्त पुरुष धनादिकको ठगाते हुए भी हर्ष मानते हैं; उसी प्रकार मिथ्याभेष द्वारा ठगे गये जीव नष्ट होते हुए धर्मधनको नहीं जानते हैं। भावार्थ :इन मिथ्यावेषवाले जीवोंकी सुश्रुषा आदिसे अपना धर्मधन नष्ट होता है उसका विषाद नहीं है, मिथ्याबुद्धिसे हर्ष करते हैं। वहाँ कोई तो मिथ्याशास्त्रोंमें जो वेष निरूपित किये
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com